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चतुर्थ सर्ग * तदनन्तर एक समय वन में जब पुष्पसमूह से सुशोभित बसन्तोत्सव प्रयत्न हुआ तब अपने ही समान मनोहर सुगन्ध को विस्तृत करने वाले (पक्ष में हृदय को प्रिय लगने वाली मनोज्ञता को विस्तृत करने वाले) उस वसन्तोत्सव को देखने के लिये राजा यशोमति अपनी कुसुमावली नामक स्त्री के साथ हर्ष से वन में गया ।।१।।
मनोहर शब्द करती हुई कोकिल ही जिसका कण्टम्बर है तथा नवीन विकसित पुष्प ही जिसका शुक्ल हास है, ऐसी वसन्त नयी ने धन के बी। आये हुए राजा से मानों 'स्वागतम्' ही कहा था ।।२।।
उस समय राजा की स्त्रियाँ और लताएं एक समान थी क्योंकि जिस प्रकार राजा की स्त्रियाँ अत्यन्त कृश थीं उसी प्रकार लताएं भी अत्यन्त कृश थी। जिस प्रकार राजा की स्त्रिया फूलों से सुगन्धित थीं उसी प्रकार लताएं भी फूलों से सुगन्धित थीं और जिस प्रकार राजा की स्त्रियाँ अपने शरीर में प्रवालता - उत्कृष्ट केशों के सद्भाव को धारण कर रही थी उसी प्रकार लताए भी अपने सब शरीर में प्रबालता - पल्लयों को थारण कर रही थीं परन्तु राजा की स्त्रियाँ तो यहा-वहाँ घूम रही थीं और लताएं स्थिरता को नहीं छोड़ रही थीं।।३।।
पुष्परूपी सम्पनि का विप्लव-लूटमार उपस्थित होने पर वायु के वशीभूत वृक्ष भय से ही मानों काप उटे थे और दीर्घकाल तक उन पर निवास करने वाले भ्रमर शब्द करते हुए उनके पास जाकर मानों रो ही रहे थे।।४।।
ऊँचाई के कारण जिन पर मनुष्यों का चढ़ना कटिन था ऐसे वृक्षों पर बहुत दूर तक लताएँ बढ़ गयीं। उन वृक्षों के अग्रमाग पर पुष्पवपी लक्ष्मी ऐसी जान पड़ती थी मानों वह स्वयं अपने निवास की रक्षा ही करना चाहती हो।।५।।