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हे तन्वि! विष के द्वारा मुझे मार देने पर भी क्या तेरे मन का क्रोध शान्त नहीं हुआ? जब मैं भैंसा हुआ तब जो भी ग्वा कर तृप्त नहीं हुई और अत् लम्पटतापूर्वक मेरी जांघ को भी खा रही है।।८।।
इस प्रकार बार-बार स्मरण करने वाला वह बकरा और वह जलाया हुआ भैसा राजमाता के द्वारा कई दिन तक खाया जाता रहा। अन्त में दोनों ने अपने प्राण छोड़े। बेचारे क्या करते? ।।१।।
बकरा और भैंसा-दोनों ही आर्तध्यान से शरीर छोड़ कर बलवान कर्म के द्वारा ले जाये जाकर उसी नगर में चाण्डाल के दुःखदायक घर में मुर्गा हुए।।२।।
अथानन्तर किसी प्रसङ्ग पर चण्डकर्मा चाण्डाल ने वे दोनों मुर्गे ले जाकर राजा यशोमति को दिखलाये। तब उसने चण्डकर्मा से कहा कि तुम इन्हें पुत्र के समान आदर से बढ़ाओ ।।८३ ||
जिनके नेत्र चञ्चल थे, जो बड़े तथा श्यामल पङ्खों से सहित थे, अवस्था होने पर जपा के फूल समान कान्ति वाले चूड़ारत्न को धारण कर रहे थे, जिनके पैरों के अङ्कुर सुवर्ण की कस की कान्ति की चोरी से सुशोभित थे अर्थात पीले रंग के थे और जो उत्तम पिंजड़े में रखे गये थे ऐसे वे दोनों मुर्गे चण्डकर्मा के घर में सुख से बढ़ने लगे।। ४ ।।
उधर जो शोभायमान राज्यलक्ष्मी का स्वामी था, शुक्र तथा वृहस्पति आदि मन्त्रियों के द्वारा निदर्शित कार्यों को करता था, वैद्यविद्या के सागर स्वरूप - उत्तमोत्तम वैद्यों के द्वारा निर्मित रसायन से जो सदा संतुष्ट रहता था, और युद्ध में अपनी विजयसिंहता को विस्तृत करता रहता था ऐसा राजा यशोमति भी दीर्घकाल तक पृथिवी को धारण करता रहा ।।५।।
इस प्रकार श्रीवादिराजसूरिविरचित यशोथरघरित महाकाव्य
में तृतीय सर्ग पूर्ण हुआ ।।३।।
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