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जिस समय बकरा अपनी माता के साथ रति कर रहा था उसी समय दूसरे बकरे ने शीघ्रता से आकर उसे मार डाला। उसके पैने सींगों के अग्रभाग से उसका पेट विदीर्ण हो गया तथा क्रोथ से नेत्र लाल हो गये।।५४ ।।। ___मरकर वह अपने ही वीर्य रस को धारण करने वाले उस बकरी के गर्भस्थान को पुनः प्राप्त हुआ अर्थात् अपने ही वीर्य से अपनी ही माता के गर्भ में पुनः बकरा हुआ। बकरी की कुक्षि में उस बकरे की वृद्धि होती रही जिससे उसका गर्भ बहुत भारी हो गया।।५५ ।।
एक बार राजा यशोमति शिकार के लिये गया; वह खिन्न मन होकर जब वन से लौट रहा था तब उसने विचार बिना ही उस गर्भवती बकरी को तीक्ष्ण शस्त्र के अग्रभाग से मार मला ।।५६ ।।
शस्त्रप्रहार के छिद्र से जब गर्मस्थित बकरा नीचे गिरा तो उस शिशु को देखकर राजा को दया आ गया। उसनं चाण्डालं से कहा कि इसे बढ़ाओ - इसका पालन-पोषण करो और चाण्डाल ने भी उसे बढ़ाया - पालन-पोषण करके बड़ा कर दिया ।।५७।।
एक बार राजा यशोमति यह संकल्प कर कि बदि शिकार अच्छी हुई तो चण्डुमारी देवी के लिये भैंसे की बलि चढ़ाऊँगा, शिकार के लिये गया। वहा उसने समवयस्क लोगों के साथ बन में जाकर इच्छानुसार बहुत मृगसमूह को मारा ।।५८ ||
शिकार विषयक संतोष की वृद्धि होने से उसने भैंसा मार कर चण्डमारी देवी की पूजा की। सेवक लोग उस भैंसे के मांस को ब्राह्मणों की तृप्ति के लिये पाकशाला में ले गये।।५६ ।।
सुखाने के लिये धूप में फैलाये हुए उस मांस को देख कर ब्राह्मणों ने कहा कि यह मांस श्राद्ध कार्य के योग्य नहीं है क्योंकि काक और कुत्तों के द्वारा ग्रहण कर अपवित्र कर दिया गया है।।६० ।।
किन्तु यह मांस यदि बकरे के मुख से स्पृष्ट हो जाये तो सब ओर से शीघ्र ही शुद्ध हो जाता है। ऐसा ही धर्म के विचार में नारद आदि मुनि कहते हैं।।६१।।