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उसके संभोग सम्बन्धी उपचार की उपेक्षा कर अधिक नींद को धारण करते हुए के समान वे चुपचाप पड़े रहे और उसके साहस से अत्यन्त उद्विग्न मन के द्वारा इस प्रकार कहने लगे।।६२ ।।
या सांङ्ग सुन्दरी रानी भले ही कामदेव की वशीभूत है तो भी नीच में कैसे रमण करने लगी? अथवा विषय की अभिलाषा मोह उत्पन्न कर देती है।।३।।
मनोष्टर रूप और यौवन के विषय में मनुष्यों की व्यर्थ ही अभिमान बुद्धि होती है। स्त्रियों के चित्त का स्वामी तो काम है, वह जिसे चाहता है, स्त्री वहीं करती है।६४।।
एक तो राज्यलक्ष्मी मेरी है और दूसरी यह है परन्तु जब यह इस प्रकार अत्यधिक व्यभिचार की भूमि है तब इस बञ्चल प्रकृतिवाली में मैं कैसे विश्वास को प्राप्त हो ।।६५ ।।
इसलिये काम के वशीभूत रहने वान्ने मेरे इस मन को धिक्कार हो। अब मैं दीक्षा के द्वारा उस अविनाशी मुक्ति रूपी स्त्री को खोनूंगा ।।६६॥
इस प्रकार अन्यान्य विकल्पों से विचार करता हुआ वह नेत्र बंद कर शय्या पर पड़ा रहा। तदनन्तर प्रभातकालीन मङ्गल गीतों को सुनकर वह ऐसा उटा जैसे जाग कर ही उठा हो।।६७।।
घी को देख कर, उत्तम गाय का स्पर्श कर तथा वैद्यों के साथ शरीर का विचार कर वह क्रीडाप्रेमी राजा जन्न भीतर गया तब उसने सखियों के मध्य में देहरी पर बैटी रानी को देखा।।६८ ।।
प्रहास-गोष्ठी कर राजा उसके साथ बुद्धिपूर्वक क्रीड़ा करने लगा। उसी समय उसने लीलापूर्वक लिये हुए नयीन नीलकमल से ग़नी के सुकुमार शरीर को ताड़ित किया।।६६ ।।
उसकी वेदना को सहने में असमर्थ होने के कारण ही मानों जो शरीर को पृथिवी पर गिरा रही थी ऐसी उस रानी को चन्दन मिश्रित जन्न के सींचने से आश्वस्त करता हुआ राजा दयाभाव से ही मानों इस प्रकार बोला । ७० ।।