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इस मार से रानी को अत्यधिक मूछा आ गयी। उसी दशा में बह उसके पैर अपने कण्ट पर रखकर ताना देता हुआ उससे इस प्रकार बोला कि हे कृशाड्रिग! मैं तुम्हारे पैर सिर पर धारण कर रहा हूं। चुप क्यों बैंटी हो, शोक छोड़ो ।।५४ ।।
किसी तरह सांस भर कर रानी उससे बोली कि हे नाथ! मेरा अपराध नहीं है, क्रोध दूर कीजिये, राजा के साथ दीर्घकाल तक अर्धासन पर रहना ही मेरे विलम्ब का कारण है।।५'६ | 1
आपकी प्राप्ति का निश्चय करने वाले ख्पादि से मेरी सभी इन्द्रिया तप्त होती हैं अर्थात् मेरे खपादिक का उपभोग आपके द्वारा हो इसी में मेरी इन्द्रियाँ संतुष्ट रहती हैं, आप ही मेरे जीवन हैं, जब तक आयु है तब तक आप में मेरा अनादर कैसे हो सकता है? ||५६ ।। ___ इस प्रकार विश्वास दिलाये हुए जार के द्वारा भोगी जाने वाली रानी को देखकर राजा क्रोध से तलवार चलाता हुआ उन दोनों को पहले तो मारने की इच्छा करने लगा परन्तु पश्चात् धैर्य धर कर उसने विचार किया ।।५७॥
हाथी के द्वारा आजीविका करने वाला यह क्षुद्र महावत कितना है? और स्त्री कदाचित् विकृत भी हो तो भी वह मारने योग्य नहीं है। यह मेरा उत्तम क्षत्रिय धर्म नहीं है किन्तु इससे - उन दोनों को मारने से मेरा हार के समान उज्ज्वल यश ही नष्ट होता है।।५८ ||
युद्ध में शत्रु वीरों का घात करने वाला यह खड्ग क्षुद्र जीव पर कैसे गिराया जाय? सिंह, हाथी के गण्डस्थल को विदीर्ण करने वाले अपने दाढ़ के अग्रभाग को शृगाल के ऊपर कभः प्रयुक्त नहीं करता ।।५।।
इस प्रकार अपने चित्त में विचार करता हुआ राजा शान्ति से लौट कर पुनः शय्या रूपी पुलिन पर सो गया और वह रानी भी गुप्त वृनि से लौट कर पुनः उसी श्रेष्ट गजा (पक्ष में राजहंस के पीछे सो गयी ।।६।।
उसके स्तनों की जो कटोरता पहने रागभाव धारण करने वाले राजा को गाढ़ आलिंगन का इछा उत्पन्न करती थी वही उस समय उसके लिए उद्वेग | - 'मय उत्पन्न करने लगी थी।।६ ।।
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