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यह राज्यलक्ष्मी स्त्री स्वभाव से ही मानों उस नवीन भता में अनुराग करने नगी और उसी के द्वारा की हुई भक्ति सेवा से ही मानों वह स्पष्ट रूप से अपने अङ्गों में पुष्ट हो गयी ।।१७ ।।
उसके गुम रूपी अमृत के द्वारा सीकी की समस्त पन्ना, हिला के वियोग से उत्पन्न संताप को छोड़कर उसमें उस प्रकार संसक्त हो गयी जिस प्रकार सूर्य की रश्मि चन्द्रमा में संसक्त हो जाती है ।।१८ ||
उसका चरित क्रोथ को धारण करने वाला नहीं था। विचार कर कार्य करने वान्ना वह पुरुषों को उद्विग्न करने वाला नहीं था। वह किसी का अपमान नहीं करता था। उसकी राज्यश्री विनय से परिपूर्ण श्री । वह दानी था नथा लोभ को सहन नहीं करता था।।१६।।
उस राजा का चक्षु तेजोमय था। उस तेजोमय मुख्य चक्षु को निमीलित कर वह निद्रा को प्राप्त होता था और सांङ्ग में व्याप्त अन्य चक्षु से जागता हुआ चोरों की प्रवृत्ति को दूर करता था ।।२०।।
उस राजा ने अपने देश की पूर्ण सिद्धि के लिये खड़गोष्ट रूपी बेदी में मन्त्र और क्रिया के द्वारा जिस स्वकीय तेज को प्रचलित किया था उसके द्वारा उसने उत्रित होते हुए शत्रु रूपी केतु की दुष्टता को नष्ट कर दिया था। मावार्थ • वह राजा गुप्त मन्त्रणा और तदनुरूप क्रिया के द्वारा अपने राज्य में दुष्टों को आगे नहीं आने देता था।।२१।।
वह दिन के अन्त में लोगों को विदाकर रत्नपय दीवालों से युक्त महन पर चढ़ कभी काम की तृप्ति के लिये स्त्री सहित गर्भगृह में विनोद पूर्वक बैटा था।।२२।।
उस समय भवन के अभ्यन्तर भाग को सुगन्धित कर सुन्दर झरोखों के छिद्रों से बाहर बहता हुआ कबूतर के पख की कान्तिवान्ना मनोहर कालागम बनियों का थम वृद्धि को प्राप्त हो रहा था ।।२३।।
उस भवन का प्रकाश कुड-कुछ नान्न रङ्ग के सुन्दर कान्तिथान्ने रत्नदीपों से पाटनवर्ण का हो गया था इसलिये लान्न प्रकाश के बीच खिले हुए मालती के फूलों को लोग उनकी नूतन सुगन्धि के द्वारा ही जान पाते थे ।।२४ । । ।