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ही कर्मबन्ध हुआ, जिसके फलस्वरूप हम दोनों मा-धेरै मयूर और श्वान हुए. फिर नकुल और सर्प, पुनः मत्स्य और सुंसमार, फिर दोनों मर कर बकरा, पुनः बकरा फिर मैंस और कुत्ता रूप में जन्म ले लेकर हम प्रत्येक भव में अपने पुत्र के राजमवन में लाये गये। श्राद्ध के समय मेरे पुत्र ने मेरी ही बलि चढ़ा कर मेरे ही पिता और दादी के जीव को तृप्त किया।
जब पाप का परिवाफः कुकीन हुआ तब किसः पुण्ययोग से धार्मिक संस्कार मिले । फलस्वरूप उसी उम्लयिनी नगरी के राजकुन में हम भाई-बहिन हुए। पूर्व भवों का जातिस्मरण हो जाने से बालवय में ही हम दोनों ने दीक्षा धारण कर ली, फिर भी आटे के मुर्गे की बलि बढ़ाने के पाप का कुछ अंश अभी अवशेष था जिससे भिक्षार्थ जाते हुए हम दोनों आपके अनुचरों द्वारा लि चढ़ाने हेतु यहा लाये गये हैं।
कथानक अत्यन्त मर्मस्पशी है। आटे के पशु की भी हिंसा करने के भयकर कटुफलों को प्रत्यक्षवत् दर्शाने वाला है। ___अनेक आचार्यों एवं महाकवियों ने इस पर अपनी सुलेखनी चलाई है। आचार्य श्री वादिराजजी ने भी यह आख्यान लिख कर हिंसा के फल बताते हुए कुलटा स्त्रियों के चरित्र का चित्रण कर सन्मार्ग दिखाया है। सुखेच्छु भव्य जीवों को इसी अहिंसामार्ग का अनुसरण कर अपनी आत्मा का उद्धार करना चाहिए।
श्री पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य ने इस अपृयं कृति का भाषान्तर कर अहिंसा की प्रतिष्ठा में एक सराहनीय कार्य किया है। गृहस्थावस्था में रह कर मी आपने अपना सम्पूर्ण जीवन जिनवाणी माता की अपूर्व सेवा में ही व्यतीत किया है, यह अतीव अनुकरणीय है।
पारिवारिक जन-धन की समृद्धि द्वारा सर्व अनुकृन्नताएं घर में उपलब्ध होते हुए भी आप घर से उदासीन हैं, और मड़ियाजी [जवनपुर के गुरुकुल में रह कर जिनवाणी की सेवा में निरन्तर रत हैं। सीढ़ियों से गिर जाने के कारण आपके हाथों में कम्पन होता है फिर भी आपका मन स्वस्थ है अतः शरीर को भी मन के आदेशानुसार लेखनादि का कार्य करना पड़ता है। आपका मन और बुद्धि अन्तिम श्वास पर्यन्त जिनवाणी की सेवा में संलग्न रहे, यही मेरी हार्दिक भावना है। भद्रं भूयात्।
-- आर्यिका विशुद्धमती