________________
“स्वयं के श्राद्ध हेतु स्वयं की बलि"
एक अनूठा कथानक अहिंसा के स्तम्भ पर खड़े रहने वाले धर्मप्राण इस भारत देश में एक समय ऐसा गुजर चुका है. जब ये क्रूर पानय धर्म के नाम पर पशु-पक्षियों की एवं मनुष्य की भी अलि चढ़ा कर खुशियाँ पनाते थें। राजवृद्धि, भोगलिप्सा, यशःप्राप्ति एवं विजय प्राप्ति आदि के लिए बत्नि देना भारी हिंसा करते थे। उस समय और भी अनेकानेक निमित्त खड़े करके हिंसा का नग्न नृत्य हुआ करता था। हिंसा ने अहिंसा को निष्कासित करने का बीड़ा उठा रखा था। बड़े बड़े महन्त, धर्माचार्य एवं राजा लोग हिंसात्मक अनुष्टानों द्वारा भोली जनता के हृदय में हिंसा की महत्ता का प्रतिष्ठापन कर रहे थे। ऐसे ही समय में मारिदत्त नामक एक ऐसा गना हुआ जो सत्संग को जहर समझता था तथा क्रूर एवं दुष्ट मनुष्य रूपी सपो से वेष्टित रहता था। उसके वीरभैरव नामक कुनाचार्य ने राजा से कहा कि आप यदि अपने कर-कमन्नों से समस्त जीवों के जोड़ों की बलि चढ़ा कर चण्टमार्ग देवी की पूजन करें तो आपको एक ऐसे खड़ग की सिद्धि हो जायेगी जिसके द्वारा आप सपरत विद्याधरों पर विजय प्राप्त करके अपने राज्य की वृद्धि कर सकेंगे।" इस खड़ग के लोभ में राजा अपने कुलगुरु के निर्देशानुसार भयंकर दुःन्य देने वाली हिंसा करने के लिए उद्यात हो जाता है। समस्त जीवों के जोड़े मंगाये जाते हैं, पनुष्य-युगल के लिए लघुयय वाले क्षुल्लक क्षुल्लिका को मी वहीं लाया जाता है। उस बान-युगल का मनमोहक रूप एवं साधुवेप देखकर पाना उनका परिचय पूछता है. तब वे अभयकुमार क्षुल्लक अपने परिचय में अपने ही पूर्वभवों का रोमांचकारी धानक कहते हैं -
"मैं उज्जायेनी नगरी में वशीधर नाम का राजा था, मेरी माता का नाम चन्द्रमती था। अमृतमती नाम की मेरी पटरानी का एक कुबड़े महावत से अनुचित सम्बन्ध था। यह दृश्य एक दिन मेरे दृष्टिगत हो गया। अतः मने दीक्षा लेने का अपना विचार माँ के समक्ष रखा। माता की प्रेरणा से मैंने मनःशान्ति हेतु आटे के मुर्गे की बलि चढ़ाई. उसी समय मेरी पट्टमाहेपी द्वारा दिये जाने वान्ने विषमिश्रित खाद्य से हम दोनों की मृत्यु हो गई।
आटे के मुर्गे में मुगै की ही रथापना करने से हमें साक्षात मुर्गे की बनि सदृश