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सात भयों से निर्मुक्त थे, जीवों को अमय देने वाले थे, निरन्तर स्वाध्याय में तत्पर रहते थे और शुद्ध ज्ञान रूप किरणों से युक्त थे।।३।।
वे तप के अद्वितीय स्थान थे, व्रतों के महासागर थे, भव्यजीव रूप कमलों के लिए सूर्य थे, तथा शील और आचार से निर्मल थे।॥३२॥
वे प्रशंसनीय व्रतों के धारक मुनियों के साथ किसी पवित्र स्थान पर बैठ कर तत्परता से मार्ग सम्बन्धी अतिचारों का प्रतिक्रमण कर रहे थे।३३॥
तदनन्तर उस दिन अन्य मुनियों ने उपवास कर लिया अतः सुदत्त मुनिराज ने क्षुल्लक युगल के लिए चर्यार्थ जाने की आज्ञा दी।।३४।।
मुनिराज को प्रणाम कर वह क्षुल्लक युगल जा रहा था कि दण्डकर्मा ने पहले उसे पकड़ लिया पश्चात् राजपुर के राजा मारिदत्त के पास ले गया।३।। . उस समय अभयरुचि क्षुल्लक ने अपनी छोटी बहिन झुल्लिका से इस प्रकार के वचन कहे - हे मातः! चित्त को स्थिर करो, मृत्यु से भय नहीं करो।।३६।। ___क्या नहीं जानती हो, चिरकाल के अभ्यास से हम लोगों को दुःख सहन करना सरल हो गया है। मनुष्यों का शरीर ही दुःख का कारण है, उसके रहते हुए दुःख से छुटकारा कैसे हो सकता है? ।।३७ ।।
इसलिए जब दुःख अवश्य भोगना है तब भय क्या करेगा? दूसरी बात यह है कि विवजन परीषह-जय को उत्कृष्ट तप कहते हैं।।३८ ।।
बड़े भाई का कथन सुन अभयमती भी बोली – पूर्वापर तत्त्व को जानने वाले हम दोनों को भय क्या है? अर्थात् कुछ भी नहीं ॥३६ ।।
' यही विद्वत्ता है और यही विद्वत्ता का फल है कि विद्वानों का मन सुख और दुःख में माध्यस्थ्य भाव को प्राप्त होता रहे।।४।।