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जो नगर, नित्य ही सब दिशाओं में रिथत तथा बाणु से कम्पित धनिकजनों के मालों को ऊंची पताका ओं के द्वारा वाचकों को पानों चूना ही रहा है ।।१०।।
जिस नगर में स्त्रिण अनुपम लावण्य - खारापन (पक्ष में सौन्दयी से निर्मित अवयवों से युक्त होकर भी भोगीजनों के लिए सर्वाग से मधुर मीटी (पक्ष में मनोहर) जान पड़ती हैं ।।११।।
जहा वक्षःस्थल पर स्त्रियों के एयोधर - स्तनरूपी मेघों का स्पर्श करने वाले तमण जन रूपी मेघ कामरूपी दावामन के संताप से मुक्त हो जाते हैं ।।१२।।
जहा इच्छुक मनुष्यों के लिए बार-बार देकर खच की हुई भी सत्पुरुषों की संपदाएं विद्याओं के समान प्रतिदिन बढ़ती रहती हैं १३ ।।
उस राजपुर नगर की दक्षिण दिशा में एक चण्डमारी देवी रहती है जिसे एकान्तरूप से प्राणियों की हिंसा प्रिय है ।।१४।।
जो यथासमय जायों के उपधात से नहीं पूजी जाय तो भयंकररूप धारण कर राज्य और राष्ट्र के उपयात के लिए होती है ।।१५।।
तथा नगरवासियों के द्वारा उचित विधि से पूजी जाय तो दमिक्ष और मारी रोग को नष्ट कर प्ररिद्धि को प्राप्त होती है।।१६।।
इस देवः के चिन्न की प्रसन्नता से वर प्राप्त करने के इच्छुक राजा सहित नगरबासी जनों के द्वारा कार्तिक और चैत्र के महीने में यात्रा की जाती है।।१७।।
मधु-चैत्र मास ने आकर आम्रमजरियों के स्वाद से मन कोयनों के शब्दों के द्वारा मानों उस देवी के लिए अपने आगमन की सूचना दी थी।।१८।।
नाल अशोक वृक्ष की मरियों को प्रत्येक दिशा में बहुत ऊँचाई तक उड़ाता हुआ ऐसा जान पड़ता था मानों रक्त के द्वारा उस देवी को बन्नि ही बढ़ा रहा हो।।१६।। ___मन्दिर के आम्रवृक्षों की शाखाओं पर कोयनें ऐसी बैठी थीं मानों वसन्त ऋतु के द्वारा उपहार में दिये हुए शृन से पकाये हुए मांस ही स्थित हों ।।२९ ।।