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प्रत कथा कोष
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धनिष्ठा से रेवती तक पांच नक्षत्रों को पंचक माना जाता है। इन पांचों नक्षत्रों में तृणकाष्ठ का संग्रह करना, खाट बनाना, झोंपड़ी बनाना निषिद्ध है।
अश्विनी, रेवती, मूल, आश्लेषा और जेष्ठा इन पांचों में जन्मे बालक को मूलदोष माना जाता है । कोई-कोई मघा नक्षत्र को भी परिगणित करते हैं।
उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तरा भाद्रपदा और रोहिणी ध्र व एवं स्थिर संज्ञक हैं । इनमें मकान बनाना, बगीचा तैय्यार करना, जिनालय बनाना, शांति और पौष्टिक कार्य करना शुभ होता है। स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र चर या चल संज्ञक हैं। इनमें मशीन चलाना, सवारी करना, यात्रा करना शुभ है।
पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वा भाद्रपदा, भरणी और मघा उग्र तथा क्र र संज्ञक हैं । इनमें प्रत्येक शुभकार्य त्याज्य है। विशाखा और कृतिका मिश्र संज्ञक हैं। इनमें सामान्य कार्य करना अच्छा होता है । हस्त, अश्विनी, पुष्य और अभिजित क्षिप्र अथवा लघुसंज्ञक हैं । इनमें दुकान खोलना, ललित कलाएं सोखना या ललित कलाओं का निर्माण करना, मुकदमा दायर करना, विद्यारम्भ करना, शास्त्र लिखना उत्तम होता है।
___ मृगशिरा, रेवती, चित्रा और अनुराधा मृदु या मैत्र संज्ञक हैं । इनमें गायन, वादन करना, वस्त्रधारण करना, यात्रा करना, क्रीड़ा करना, आभूषण बनवाना प्रादि शुभ है । मूल, जेष्ठा, आर्द्रा और आश्लेषा तीक्ष्ण या दारुण संज्ञक हैं । इनका प्रत्येक शुभ कार्यों में त्याग करना आवश्यक है।
विष्कम्भ, प्रीति, प्रायुष्मान, सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सुकर्मा, धति, शूल, गण्ड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वज्र, सिद्धि, व्यतिपात, वरीयान, परिध, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, ऐन्द्र पौर वैधृति ये २७ योग होते हैं । इन योगों में वैधृति ध्यतिपात योग समस्त शुभ कार्यो में त्याज्य है, परिध योग का प्राधा भाग वर्ण्य है ।
___बन, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि, शकुनी, चतुष्पद, नाग और किस्तुध्न ये ११ करण होते हैं । बव करण में शांति और पौष्टिक कार्य; बालव में गृहनिर्माण, गृहप्रवेश, निधि-स्थापन, दान-पुण्य के कार्य; कौलव में पारिवारिक कार्य; मैत्री, विवाह आदि; तैतिल में नौकरी, सेवा, राजा से मिलना आदि राज कार्य; गर