SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 732
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्रत कथा कोष ६७३ धारण करेगा उसे देवलोक में रहने वाला विरक्त करके जिन दीक्षा के लिए प्रेरणा दे । महाबल वहां से च्युत होकर प्रयोध्या में समुद्र विजय व धर्मपत्नी सुबला के सगर नाम के पुत्र हुए। युवावस्था में उन्हें चक्रवर्ती पद मिला । इतने ऐश्वर्य प्राप्ति के बाद भी वह धर्ममार्ग को भूलते नहीं थे । उनके साठ हजार पुत्र हुए । ने कालांतर में श्रीधर चतुर्मुख मुनिश्वर को चतुरिंणकाय देव वहां आये । उस समय मणिकेतु देव भव की बात जो जिनदीक्षा के लिए कहा था भ्रमण के कारणीभूत है । अपनी प्रतिज्ञा पालने हूं । किन्तु पुत्रमोही सगर पर उस समय कोई होकर मणिकेतु देव चले गये । केवलज्ञान उत्पन्न हुआ | तभी सगर चक्रवर्ती से अपने पहले विषय भोग दुख और संसार परिहेतु ही मैं इतना निवेदन कर रहा प्रभाव नहीं पड़ा । यह देख निराश कुछ दिन पश्चात् मणिकेतु देव निर्ग्रन्थ मुनि का वेष धारणकर सगर चक्रवर्ती के जिन मन्दिर में गये । यह सुन चक्रवर्ती ने आकर नमस्कार किया । पश्चात् पूछा कि आपने यौवनावस्था में यह दीक्षा क्यों धारण की ? मुझे आश्चर्य हो रहा है । तब मुनिवर बोले यह धन-वैभव सब विनाशशोल है, अतः जिनदीक्षा लेकर प्रात्म-कल्याण करना उचित है, किन्तु वह किंचित भी वैराग को प्राप्त नहीं हुए । एक दिन चक्रवर्ती से उनके साठ हजार पुत्रों ने कार्य देने के लिए निवेदन किया किन्तु राजा ने काम बिना सौंपे हो वापस भेज दिया । यदि कभी जरूरत पड़ी तो तुम्हें बुला लूंगा । कुछ दिन बाद वे पुनः पिता के पास आकर कार्य सौंपने के लिए निवेदन करने लगे । जब तक काम नहीं सौंपेंगे हम भोजन नहीं करेंगे । तब पिता बोले कैलाश पर्वत पर भरत चक्रवर्ती ने तीर्थंकरों के सुवर्णमय मन्दिर बनाये हैं जिनमें अमूल्य रत्नमयी प्रतिमा स्थापित की है । पंचम काल में अत्यंत विषय मोही लोग उत्पन्न होंगे जिनसे संरक्षण होना आवश्यक हैं प्रतः तुम जाकर उस पर्वत के चारों ओर खाई खोदकर गंगा नदी का पानी भर दो। सब ने की सहायता से गड्ढे तैयार कर लिये पश्चात् गंगा नदी के पानी हेतु हिमवान पर्वत पर गये । यह मालूम पड़ते ही मणिकेतु देव वहां पहुंच गये और भयंकर दृष्टि विषधर सर्प रूप धारणकर विषारी फुंकार छोड़ा जिससे सब राजपुत्र मूर्छित हो गये । यह आनंदित होकर दण्ड रत्न
SR No.090544
Book TitleVrat Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar Maharaj
PublisherDigambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Ritual_text, Ritual, & Story
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy