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व्रत कथा कोष
में चार बार व रात को चार बार करनी चाहिए। प्रत्येक समय अभिषेक करना चाहिए बाद में ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यो जिन-धर्म जिनागम जिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नमः । इस मन्त्र का १०८ बार पुष्पों से जाप्य करना चाहिए । सहस्रनाम पढ़कर पञ्चपरमेष्ठी का १०८ बार जाप करना चाहिये । शास्त्र पढ़ना चाहिए इस व्रत की कथा पढ़नी चाहिए । पूरा समय धर्मध्यान से बिताना चाहिए। ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए । सत्पात्रों को प्राहार देकर फिर दूसरे दिन पारणा करना। ऐसा यह आठ वर्ष करना चाहिए । बाद में उद्यापन करना चाहिए। उस समय नवदेवता विधान कर के ११३ कलशों से अभिषेक करना चाहिए।
कथा ___ इस भरत क्षेत्र में आर्यखण्ड में सौराष्ट्र नामक एक देश है उसमें द्वारकावती नाम की सुन्दर धनधान्य से सम्पन्न नगरी है, उसका राजा कृष्ण और रानी सत्यभामा थो, वह बड़ी सुन्दर सौन्र्दशाली थी इसके अलावा भी कृष्ण को बहुत स्त्रियां थीं । एक दिन सत्यभामा स्नान करके वस्त्र पहन के अलंकार डाल रही थी तब वह कांच में अपना रूप निहार रही थी। तब नारद पीछे से आ गये पर वह तो अपना शृगार देख रही थी उसे मालूम नहीं था पर नारद को अपना अपमान लगा।
इसलिये उन्होंने अपना बदला लेना चाहा, उन्होंने सोचा कि ये अभिमान है मैं आया उसने देखा नहीं । अतः मैं इससे भी सुन्दर कन्या से कृष्ण की दूसरी शादी कराऊंगा । इस विचार से वह सब ओर घूमने लगे । सत्यभामा से भी सुन्दर कन्या कहीं मिली नहीं । अन्त में वे कुण्डनपुर में आये, वहां राजा भीष्मक राज्य करते थे । उनकी रानी लक्ष्मीमति, उसकी पुत्री रुकमणी थी व पुत्र रुक्मी। रुकमणी सब गुणों से सम्पन्न, विद्वान एवं सब कलाओं में निपुण थी। सौन्दर्य की तो वह मूर्ति ही थी।
नारद पहले दरबार में गये। राजा ने उनका सम्मान किया । तब अन्तःपुर में गये, सब ने उसका आदर किया। वहां वह रुकमणी का रूप देखकर चकित हो गये । सत्यभामा का रूप तो इसके रूप के आगे कुछ भी नहीं है । तब इसकी शादी कृष्ण से करानी चाहिए।