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व्रत कथा कोष
उदाहरण-जेष्ठ सुदी द्वितीया प्रातः काल १ घटिका १५ पल है, इसी दिन तृतीया का प्रमाण ५२ घटिका ३० पल पंचाग में लिखा है। सूर्योदय ५ बजकर १५ मिनट पर होता है, अतः इस दिन ५ बज कर ४५ मिनट तक द्वितीया रही, इसके पश्चात रात के २ बज कर ४५ मिनट तक तृतीया तिथि रहो । तदुपरान्त चतुर्थी तिथि आ गई । इस प्रकार एक ही दिन तीन तिथि पड़ीं। जिस व्यक्ति को तृतीया का व्रत करना है, वह इस प्रकार की विद्ध तिथियों में कैसे करें? यदि इस दिन व्रत करना है तो तीन तिथियां रहने से व्रत का फल नहीं मिलेगा । तथा इसके पहले व्रत करेगा तो तृतीया तिथि नहीं मिलती है, अतः किस प्रकार व्रत करना चाहिए ?
ज्योतिष शास्त्र में व्रत तिथि के निर्णय के लिए अनेक प्रकार से विचार किया है। तिथियों के क्षय और वृद्धि के कारण ऐसो अनेक शंकास्पद स्थितियां उत्पन्न होती हैं । तब श्रद्धालु व्यक्ति पशोपेश में पडता है कि अब किस दिन व्रत करना चाहिए। क्योंकि व्रत का फल तभी यथार्थरूप से मिलेगा, जब व्यक्ति व्रत को निश्चित तिथि पर करें। तिथि टाल कर व्रत करने से व्रत का पूरा फल नहीं मिलेगा। जिस प्रकार असमय की वर्षा कृषि के लिए उपयोगी होने के बदले हानिकारक होती है, उसी प्रकार असमय पर किया गया व्रत भी फलप्रद नहीं होता । यों तो व्रत सदा ही आत्म शुद्धि का कारण होता है, कर्मों की निर्जरा होती ही है । पर विधिपूर्वक व्रत करने से कर्मों की निर्जरा अधिक होती है । तथा पुण्य प्रकृतियों का बंध भी होता है। वेधातिथि का लक्षण
वेधायाः लक्षणं किमिति चेदाह-सूर्योदयकाले त्रिमुहूर्ताभावात् क्षयाभावाच्च विद्धा सा वेधा ज्ञेया । सूर्योदयकालवर्तिन्या तिथ्या वेधत्वात् ।
अर्थ-वेधा तिथि का लक्षण क्या है।
प्राचार्य कहते हैं-सूर्योदय समय में जो तिथि तीन मुहूर्त छह घटी से कम होने अथवा उसका क्षय का अभाव होने के कारण अन्य तिथि के साथ सम्बद्ध रहती है वह वेधा या विद्धा तिथि कहलाती है । सूर्योदय काल में रहने वाली तिथि के साथ वेध सम्बन्ध करने के कारण वेधा तिथि कहलाती है।