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व्रत कथा कोष
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के पास सौराष्ट्र देश है । उसमें गिरनार पर्वत है । वहां राजा भूपाल अपनी पत्नी रूपवति व स्वरूपा, उनका श्रेष्ठी गंगदत्त अपनी स्त्री सिन्धुमति के साथ रहता था, सिन्धुमति मिथ्यात्वी थी । उसको अपने सौन्दर्य का बहुत गर्व था ।
एक बार मासोपवास के बाद समाधिगुप्ति महाराज आहार के लिए उस नगर में आये । राजा के महल से वह किसी कारण से ( अंतराय से ) वापस घूमे तो गंगदत्त ने उन्हें देखा । वह सम्यक्त्वी था, उसने महाराज को पडगाह लिया
र सिन्धुमति को प्रहार देने के लिए कहा । सिन्धुमति ने कड़वी लौकी का पकवान बनाकर आहार में दिया जिससे महाराज के पेट में बहुत दर्द होने लगा पर महाराज ने शान्त भाव से उसे सहन किया और तपश्चरण किया जिससे उनका समाधिपूर्वक मरण हुआ और वे स्वर्ग में देव हुये ।
चारणऋद्धि मुनि महाराज वहां से निकले तो यह बात राजा को बतायी उन्होंने सिन्धुमति को गधे पर बिठाकर नगर में घुमाया और अपने नगर से निकाल दिया । उसे पाप के कारण अंबर कुष्ठ रोग हो गया जिससे उसका मरण हो गया और वह नरक में गयी । वहां से निकलकर वह कुत्ती हुयी, फिर मरकर डुकरी, शृगाल, मूषक, गधी आदि हुई और नाना प्रकार के दुःख भोगने लगी। वहां से मरकर वह पूतगंध हुई है ।
अपने जन्म की यह कथा सुनकर उसे बहुत दुःख हुआ । उसने महाराज से पूछा कि इससे छुटने का उपाय बताओ । तब महाराज ने कहा
हे बाला ! तू रोहिणी नक्षत्र का व्रत कर जिससे तुझे कभी भी दुःख नहीं आयेगा । उसने यह व्रत किया जिससे वह मरकर प्रच्युत स्वर्ग में देवी हुई । वहां के सुख भोगकर वह यह रोहिणी हुई है । फिर राजा ने अपना व लड़के का भी भवान्तर पूछा । उसका उत्तर महाराज ने दिया ।
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एक बार बात करते हुये दोनों बैठे थे । रोहिणी ने राजा के कान पर से सफेद बाल निकाल कर दिया जिससे अब मेरा समय आ गया है ऐसा सोचकर वासुपूज्य मंदिर में जिन दीक्षा ली । तपश्चरण करके वासुपूज्य के गणधर हुये । उग्र तपश्वरण करके मोक्ष गये । रानी ने भी दीक्षा ली और तपश्चरण करके अच्युत स्वर्ग में देव हुई । वहां से चय होकर मनुष्य भव लेकर मोक्ष गई ।