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________________ प्रत कथा कोष [५३५ बहत भांति दोनों मन्दडो, रतन पदारथ मोती जड़ो। षोडश बरस तनी सो बाल, दोनो दासी नयन सुतार ।। कुकुम केसर करिहि भराय, बहुत दये प्राभरण चढ़ाय । हय गज पट्टन दोने ठान, तिन सबको को करे बखान । मोती माणिक थाल भराय, हीरा पन्ना लाल सहाय । जेतो कछु दीन्यो - नृपराय, ना सब मो पै बरनों जाय ॥ करि ज्योनार दिवाये पान, सब प्रकार तें राखो मान । पौढ़े गुणधर कनक प्रवास, नितप्रति भोगे भोग विलास । रहत बहुत दिन बीते जाम, राजासों यों विनवै ताम ॥ अब तुम पिता एक जस लेहु, हमको विदा कृपा करि देहु । ऐसी जम्पे बारम्बार, अब हम जाय मिलें परिवार ॥ राजा तिन्हें विचारे भाव, हठ राखे उपजे विसभाव । उठकें कुंवर गोद में लये, भाँतिन भांति पदारथ दये ॥ भेंट सुता भरि प्राये नैन, लागे राय बहुत सिख दैन । सास ननद सेवा चित्त धरो, प्राज्ञाभंग भूलि जिन करो। यही सीख मैं देऊँ तोहि चलियो ज्यों कुलगारिनहोहि । कोस एकलों राब सु प्रयो, दल चतुरंग साज सब लयो । तबल निशान ढोल बाजियो, प्रति उछाह बाराणसि गयो। कण्ठ लगाय सजन भेटियो, सफल जनम मन में लेखियो । मात पिता के वन्दे पाय बहुत भावसों भक्ति कराय । भयो मानन्द नगर में जिसो, अवध प्रवेश राम है जिसो ॥ दोहा-अशुभ कर्मफल भोग करि, मिलो कुटुम्बहिं जाय । धन परिग्रह बाढ्यो घनो, पार्श्वजिनेन्द्र सहाय ।।
SR No.090544
Book TitleVrat Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar Maharaj
PublisherDigambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Ritual_text, Ritual, & Story
File Size21 MB
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