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प्रत कथा कोष
पूरी सभा रही सो मोहि, रूपवन्त नर प्राये कोहि ।.. प्रादर कर तिन लियो बुलाय, सिंहासन . बैठारे राय । दे ताम्बूल कहे गुरणधीर, कछु चिन्ता मत करहु शरीर । तुमको यातें लियो बुलाई, मेरे मन विकल्प भयो प्राइ । कैसे धन पायो तुम येह, ज्यों भाजे मेरो सन्देह । धर्म फलाफल सुनो विचार, जय जयकार करे भूपार । धनधन पिता धन्य तुम माइ, जाकी कूख जने तुम प्राइ । धन तू वंश धन्य कुल होहि, अब तुम वत्स क्षमाकर मोहि । बोले गुणधर सुन हो राय, भले दिवस हम नगरी प्राय ॥ प्राण काढ़ि तुमको रिन देहि, तऊ न ऊरनि तुम तें होंहि । इतनी सुन प्रानन्दो राव, तुष्ट कुंवर का कियो पसाव ॥ हुती सुता बहु गुणसंयुक्त, दीनी गुणधर जोग तुरन्त । तासु रूप को सके विचार, सत्य शोल सीता उनहार ।। लछन बत्तीस लिलार दिपंत, मधुर लचन कोंकिल के भंत । टीका कर घर दियो पठाय, वेग विप्र तिन लियो बुलाय ।। लिखीलनगु शुभदिनसोधियो, मंगलाचार सुता को कियो । पञ्च सबद बाजे धुनाकार, बुधजन मन्त्र पढ़े झनकार ॥ तबल निशान भेरि धुनि भई, दासी एक सुता पै गई । स्वामिनिसुन अब धारो पांव, नृप ने रचो तुम्हारो व्याय ॥ मनको चिन्तो कारज भयो, रूपवंत गुणधर वर लयो। चित पाहलादी राजकुमारि, सुवरण सांकल दई उतारि ॥ वचन तिहारो मोकों होहि, दासी बहुतक दूंगी तोहि । चॅवरी मण्डप धरी उठानि, कनककलशचौखूटहिं ठानि ।। रहस रसीलो बीतो व्याह, बहु भण्डार दियो नरनाह । चमर छत्र दोनों भण्डार, दिये सिंहासन मोतिनहार ॥