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प्रत कथा कोष
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पाखण्डी जोगी ठग चाल, क्याहोन अरु मर्म चण्डाल । करें पहाड़ घाट में वास, करो भूलिमति तिन विश्वास ॥ जार चोर विसनी परधनी, वेश्या दासी मौर कुट्टनी । ये शुभ सीख हिये में धरो, इनकी भूल न संगति करो ॥ सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, अरु सम्यक्चारित्र बखान । तीनों रतन धरो मन लाय, ताको सेव करें सुरराय ॥
दोहा भाषा बोलो सत्य कर, तो सुपुरुष तनु सार । जननी प्यारे चित्तधर, सज्जन मितु परिवार ॥
चौपाई करियो मेरे वचन संभाल, जननी पिता न आवे गाल । दुख सुख दिवस आपने भरो, सातों विसन वीर परिहरो । दही दूध सिर लाइ चढाइ, जननि असीस दई बहु भाइ । चलत शकुन सब नीके भये, गांठि बांधि प्रौधापुर गये ।। जहां सेठ जिनदत्त सुजान, राखे षड्दर्शन को ज्ञान । रूपवंत गुण लच्छन भार, गुरण वरनो तो होइ अवार ॥ हाथ जोरि यों कहे कुमार, सुन जश पाय तुम्हारे द्वार । करो कृपा गहि लीजे बांह, गये दिवस पावें तुम छांह ।। पूछ साहु करो सतभाव, को कुल कौन तुम्हारो ठांव । कौन काज इत पाये भ्रात, करो वीर तुम सांची बात ॥ तब गुणधर बोलो सतभाव, बणिक सुपुत्र बनारस ठांव । जैसे कर्म उदय भये प्राय, सब विरतन्त कह्यो समुझाय ॥ दयाभाव वाके उर भयो, प्रादर करि भीतर ले गयो । पूंजी दइ वाणिज के जोग, करि सहाय और हू योग ।।