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व्रत कथा कोष
इतनी कथा रही इस ठांहिं, करि करसन जे पेट भराहि । बहुरि कथा गई सो तहां, रहे साहु मतिसागर जहां ॥ पीछे इन दुख बहुतै कियो, प्रवधिज्ञानी मुनि बंदियो । नारि पुरुष दोउ सिर नाय, भावभगति करि लागे पांय || स्वामी कहहु सबै निरदोष, कौन कर्म तें लागो दोष । सुतनविछोह कर्म किनकियो, सब धन कौन कर्म तें गयो ॥ प्रजहूं मासों कहो सुभाई, बहुरि सुपुत्र मिले जो श्रई । श्रवधिज्ञान मुनि बोलत भयो, बात भेद सब तासों को || करहु न चिन्ता सुतसुख होंहिं, बहुत लाभसो मिलसी तोहि । पारसनाथ रविव्रत निन्दयो, सुतन विछोह कर्म इन कियो ||
अब संयम व्रत धरहु बढ़े लक्ष्मि होवे यश
दिढाई, एकचित्त कीजे मन लाई । कोष, प्रशुभकर्म को भागे दोष || सुनि मुनिवचन भयो श्रानन्द, दासभाव सेयो जिनचन्द । अतुल लक्ष्मि ताके घर भई, बहुरिकथा सु अवधपुर गई ||
इकदिन गुरणधर मूखो भयो, हँसत हँसत भावज पै गयो । ता क्षरण भावज कही रिसाय, भोजन देहों घास लिश्राय || लागो बोल कुँवर गयो तहां, वन उद्यान घास था जहां । दुख सुख काटि मूंडपे लियो, हँसिया मूलि कुँवरघर गयो । ताछिन भावज उठी रिसाय, हंसिया वेगि लिश्रावहु जाय । जब तुम हंसिया देहो मोहि, तबही भोजन दूंगी तोहि ॥
ऐसे वचन सुने वरवीर, उठे रोम थरहरो शरीर । तिन मन में दुख धरो प्रपार, बिन प्रभुता धिक है संसार ||
धुनतो सीस बहुरि सो गयो, तो लगि दात्र बैठि अहि रहो । तब गुरगधर बोलो अकुलाय, नमस्कार कर लागो पाय ।।