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व्रत कथा कोष
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के मैं दियो कुपात्रहिं दान, कै जिनवर को धरो न ध्यान । --- के में करी न गुरु की सेव, के मैं अपमान्यो जिनदेव ॥ के मैं खोटो इच्छा करी, के मैं पूज कुदेवहि करी । के मैं पाप पुण्य न विचार, के मैं मारे प्राणी रिसधार ॥ कै विष मेल खवाई खीर, के अनछान्यो पीयो नीर । कंदमूल के भखे अघाइ, के जिनभक्ति न चित्त सुहाइ । ऐसे कहि मन में पछिताय, तब गुणधर राखो समझाय। दुख मतकरहु तात सुनिमोहि, राजा रंक करम तें होंहि ॥ कहिं राम दशानन हन्यो, लंका राज्य विभीषण दियो। सिया मिलाई दल संहार, कर्मयोग दोनो सुनिकार ।। राय यशोधरजी अति बली, अमृत देवी तिस सुन्दरो। तिन कुबड़ोरमियो परिभाव, विष लाडु दे मार्यो राव । पूरब भव को संगम भयो, प्रदुमन धूमकेतु ले गयो । चांपिशिलातल धर्यो शरीर, कर्म भुजि निकसो वरवीर ।। कौरव पांडव कीन्ही रार, जिनकी सेना को नहिं पार । दुसह कर्म तें विग्रह भयो, दल छोहिणी अठारह गयो ।। बहत भांति समझायो साव, बैठि मतौ जिन कियो उछाव । जननी पिता रहें इस देश, पेट भरन हम जांहिं विदेश ।। चलत सीख दोनी तिन योग्य, सुखकारी अरु महा मनोग्य । पजी काढ़ सुवानिज करो, प्रामद खार मूल विवहरो॥ प्यारे बोल बोल जस लेह, नित्ययोग कुछ धरम करेह । वैरी मित्र गिनो इकसार, सांचो भरियो साख कुमार ॥ जबदिन फिरें कुंवर तुमतने, तब फिर प्रावह घर आपने । सजन मित्र प्रीतम परिवार, बढ़े लक्षिम धन होय अपार ।।