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व्रत कथा कोष
सुविधि सुशीतल सेवा करों, धुनि श्रेयांस प्रभू मन धरों । वासुपूज्य प्रणमों धर भाव, होय रिद्धि वैकुण्ठहि ठाव || विमल अनंत धर्म जिन शान्ति, प्रणमों कुन्थु नमों बहुभांति । अरह मल्लि मुनिसुव्रत देव, सुमिरत होय पाप को छेव || बहुभांती नमि जिन प्ररणमन्त, जा प्रसाद हो जग का अन्त । रिष्टनेमि प्ररणमों कर जोरि, जासें जन्म न होय बहोरि || पार्श्वनाथ जप हिय में धरों, जन्म न पास कर्म के परों । वर्धमान पूजों मन लाय, बाढ़ धर्म पाप छय जाय ।। जिनचौबीस करो श्रुति जाम, सब जिनेन्द्र को प्रणमों ताम । जिन स्वामी पायो निर्वान, तिनको पुनि सुमरों धरि ध्यान ।। शारद तनी सेव मन धरों, जा प्रसाद कविता उच्चरों । मूरखतें पढ़ि पण्डित होइ, ता कारण सेवे सब कोइ ||
छह दरसन मुखमण्डन सार, गरे परे गज मोतिन हार । मुकुटतिलकसिर सोवनसिरी, कानन कुण्डल रतनन जरी ॥ शीश मांग मोती झलमलें, चालत नेवर रुणझुण करें । हंस चढ़ी कर वीणा लेय, सुमरत बुद्धि महाफल देय || शारद नमन करों बहु भाय, पुनि पुनि लागों गुरु के पाय । जैसे कहि समुझे सब जान, तैसी भाषा करों बखान || पढ़त सुनत चित होय प्रनन्द, बाढ़ जस जिमि पूरचंद । गुणिजन होय सुनें दे कान, सरस कथाको करो बखान ||
कथा प्रारम्भ
पुर वाराणसी पूरब देश, करे राज महिपाल नरेश । बाकी महिमा को कवि कहे, पढ़त सुनत को उम्रन्त न लहे ॥
नगर धनी निवसे सब लोग, भोगें नानाभोग मनोग । मतिसागर कोटिध्वज साह, आदर करे बहुत नरनाह ॥