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________________ व्रत कथा कोष बनजे हीरा माणिक लाल, बेचें मोति कसे कसौटी परखे दाम, श्रादर बहुत देव पूजि नित भोजन करे, राग द्वेष नहि मन में धरे । बहुत कुटुम्ब बहुत परिवार, खरचे दाम राजसो धार ॥ सुरङ्ग रसाल । राय के ताम || विधि सों दान सुपात्रहिं देय, दशलक्षण को जीवदया पाले बहु भाय, ताकी उपमा धर्म करेह । दीजे काय || कहे मुनिश्वर सुन हो राय, पाप करत नर नरकें जाय । दुख देखे निन्दे संसार, महामोह मन धरे गँवार || पापलीन जाको मन होइ, ताकी बात न पूछे कोइ । मूरख पाप करे बहु भाइ, अंतकाल गति नीची जाइ ॥ धर्म ये कि धन होइ प्रपार, धर्म मन दे धर्म करे जो कोइ मुक्ति सब विचार मुनिको बुझाइ, सुनि राजा पहुंचो घर श्राइ । वंदन जे नर-नारी गये, कोइ प्राये कोई रह गये ॥ साहुनि मतिसागर घर तनी, तिनहुं बात पूछी प्रापनी । स्वामी यह संसार प्रसार, भटकत जीव न पावे पार ।। प्रावत जात बहुत दुख सहे, योनीसंकट फिर-फिर लहे । जीवत मूढ़ न चेते श्राप, मुधे होय यमपुर संताप || प्राय काल का दिन संग्रहे राय नीर नैननितें बहे । बात पित्त दुख संकट मरण, ता दिन नाहीं कोई शरण || बाढ्यो धर्म पाप छ्य गयो, स्वामी तुम्हरो दर्शन भयो । ऐसो वृष उपदेशहु मोहि, नासे कर्म परमपद होहि ॥ मुनीश्वर का उत्तर एक तारे संसार | प्रङ्गना पावे सोइ ॥ दोहा - जो जिन पूजे भाव घर, दान सुपात्रहि देहि । सो नर पाके परमपद, मुक्ति सिरीफल लेहि ॥ [ ५२५
SR No.090544
Book TitleVrat Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar Maharaj
PublisherDigambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Ritual_text, Ritual, & Story
File Size21 MB
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