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________________ व्रत कथा कोष +४२१ महाअर्घ करे, मन्दिर की तीन प्रदक्षिणा देकर मंगल प्रारती उतारे, उस दिन उपवास करके धर्मध्यान से समय बितावे, सत्पात्रों को आहारदान देवे, दूसरे दिन पूजा व दान करके स्वयं पारणा करे, याने एकभुक्ति करे, तीन दिन ब्रह्मचर्य का पालन करे । इसी क्रम से प्रत्येक अष्टमी व चतुर्दशी को प्रोषधोपवास पूर्वक व्रत उपवास करे, पच्चीस उपवास पूर्ण होने के बाद व्रत का उद्यापन करे, उस समय सर्वदोष प्रायश्चित विधान करके महाअभिषेक करे, चारों संघों को चार प्रकार का दान देवे । इस प्रकार इस व्रत को पूर्ण विधि है, जो भी भव्यजीव इस व्रत का यथाविधि पालन करता है उसको इस लोक और परलोक में सुख की प्राप्ति होती है। पात्रदान और प्रतिमायोग व्रत का स्वरूप प्रतिदिनं पात्रदान कार्यम् । यदि पात्रदानं न स्यात्तदा रसपरित्यागः कार्यः । प्रतिमायोगः कायोत्सर्गादिकः यथाशक्ति नियमः देवासिकः कार्यः इत्यादीनी देवासिकव्रतानि । अर्थ :-प्रतिदिन पात्रदान करने का नियम लेना पात्रदान व्रत है । यदि प्रतीक्षा और द्वारापेक्षण करने पर भी पात्र नहीं मिले तो रसपरित्याग करना चाहिए। शक्ति के अनुसार कायोत्सर्ग आदि का नियम दिन के लिए लेना प्रतिमायोग व्रत है । इस प्रकार देवसिक अतों का पालन करना चाहिए । उपर्युक्त त्रिमुखशुद्धि प्रादि सभी बत देवसिक हैं। विवेचन :---गृहस्थ को अपनी अजित सम्पत्ति में से प्रतिदिन दान देना प्रावश्यक है । जो गृहस्थ दाम नहीं देता है, पूजा-प्रतिष्ठा में सम्पति खर्च नहीं करता है, उसकी सम्पत्ति निरर्थक है । धन की सार्थकता धर्मोन्नति हेतु धन व्यय करने में ही है, भोग के लिए खर्च करने में नहीं । अपना उदर पोषण तो शूकर-कूकर सभी करते हैं, यदि मनुष्य जन्म पाकर भी हम अपने ही उदर-पोषण में लगे रहे तो हम शूकरकूकर से भी बदतर हो जायेंगे । जो केवल अपना पेट भरने के लिए जीवित है, जिसके हाथ से दान-पुण्य के कार्य कभी नहीं होते हैं, जो मानव-सेवा में कुछ भी खर्च नहीं करता है, दिन-रात जिसकी तृष्णा धन एकत्रित करने के लिए बढ़ती जाती है,
SR No.090544
Book TitleVrat Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar Maharaj
PublisherDigambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Ritual_text, Ritual, & Story
File Size21 MB
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