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________________ व्रत कथा कोष -- [३६६ गले में एक हार देखकर आई हूँ वैसा हार मुझको भी चाहिये, तब राजा ने अर्हदास सेठ को बुलवा कर कहा कि श्रेष्ठिवर्य ! जो आपकी सेठानी के गले में हार है वैसा मेरी रानी को भी चाहिये आप बनवाकर देवें, जितना भी धन चाहिये ले जाओ, तब सेठ कहने लगा कि हे राजन ! मेरी संपत्ति सब आपकी ही है, उस हार को ही आप को भेंट कर देता हूं ऐसा कहकर सेठ ने उस हार को राज सभा में लाकर राजा को दे दिया । हार का प्रकाश देखकर सभा के लोग बहुत आश्चर्य करने लगे, राजा ने अपनी रानी के हाथ में उस हार को दिया, रानी ने जैसे ही उस हार को अपने गले में पहना उसी क्षण वो हार काला सर्प हो गया, रानी बहुत भयभीत हो गई, हार को गले से निकाल दिया, राजा को कहा, राजा को सेठ के ऊपर बहुत क्रोध आया, तब सेठ कहने लगा कि हे राजन मुझे पता नहीं मैं मेरी लक्ष्मीमती सेठानी को बुलाता ह्र सेठ अपनी सेठानी को राज सभा में लेकर गया, उस हार को लक्ष्मीमती सेठानी ने पहना तो हार हो गया, और रानो के गले में सर्प दीखने लगा, यह सब देख कर राजसभा के लोगों को बहुत कौतुक हुआ, राजा के भी आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, रानी के गले में सर्प और सेठानी के गले में हार, यह सब देखकर राजा ने एक दिव्यज्ञान से सम्पन्न महामुनिश्वर को पूछा भगवान यह सब क्या कौतुक है मुझे कुछ समझ में नहीं पा रहा है । तब मुनिराज कहने लगे हे राजन ! इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है इस लक्ष्मीमती सेठानी ने पूर्व भव में निर्दोष सप्तमी व्रत को अच्छी तरह से पाला था, इसीलिये इसको किसी प्रकार का कष्ट नहीं हो सकता, धर्म के प्रभाव से सर्प भी रत्नहार होता है, हे भव्यजीवो आप भी इस व्रत का पालन करके पुण्य उपार्जन करो, ऐसा कहते हुये पूर्व वृत्तान्त सब कह सुनाया, सबको बहुत आनन्द हुआ, राजा ने, लक्ष्मीमती आदि सबने मुनिश्वर से निर्दोष सप्तमी व्रत स्वीकार किया, और अपने घर को वापस आ गये। ... लक्ष्मीमती आदि ने यथायोग्य व्रत का पालन किया, व्रत का उद्यापन किया, इस कारण वह लक्ष्मीमती स्त्रीलिंग छेद कर स्वर्ग में देव हो गई, वहां से
SR No.090544
Book TitleVrat Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar Maharaj
PublisherDigambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Ritual_text, Ritual, & Story
File Size21 MB
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