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आवरण पृष्ठ का परिचय
जम्बूद्वीप के विजया पर्वत की उत्तर श्रेणी में शिव मन्दिर नाम का नगर था, वहां मनोरमा रानी सहित राजा प्रियंकर निरन्तर विषयों में मग्न रहता था। उसे इतना भी मालूम नहीं था कि धर्म किसे कहते है ? एक दिन सुगुप्ति नामक मुनिराज चर्यार्थ वहां पर आते है, रानी जैसे ही देखती है, ग्लानि से चित्त भर जाता है और खाती हुई पान की पीक मुनिराज पर थूक देती है । मुनिराज अन्तराय जान वापिस चले जाते है।
जब विनाशकाल पाता है, तब बुद्धि भी विपरित बन जाती हैं, फिर अन्त में पाप का फल भोगना पड़ता है। रानी मरकर गधी, सूकरी, कूकरी बनती है। जब इन पर्यायों में तीव्र दु ख भोग चुकी। पाप हल्का हुआ तो बसन्त तिलक नगर में राजा विजयसेन तथा गनी चित्ररेखा के दुर्गन्धा नाम की कन्या उत्पन्न हुई । जब वह बड़ी हुई तो राजा को और भो चिन्ता हई, लेकिन कर्म के आगे किसकी चली हैं । एक दिन उसी नगर के पास उद्यान में सागरसेन मनि संघ सहित पधारे । राजा भी परिजन, परजन सहित वन्दना को गये, भक्तिपूर्वक वन्दना कर धर्मोपदेश सुना और फिर अवसर पाकर पूछ ही बैठे दुर्गन्धा की कथा । मुनिराज ने अवधिज्ञान से जानकर बता ही दिया सब कुछ । मुनिनिन्दा व दुव्यवहार का प्रभाव । तब राजा गुरुदेव से प्रार्थना करता है कि महा मुनिश्वर कृपया इस दुख से छूटने का कोई उपाय तो बताइये । राजा की प्रार्थना को सुनकर मुनिराज श्री ने बताया, समीचीन श्रद्धा सहित पापों का स्थूल रूप से त्याग और सुगन्ध दशमी व्रत । पाप के भार से बहुत दुःख भोग चुकी थी वह कन्या। अपनो भवाबलि गुरु-मुख से सून हृदय दुःखी हा प्रौर पश्चाताप करती हई ग्रहण किया सुगन्ध दशमी व्रत और यथा विधि उसका पालन किया । प्रायु समाप्ति पर दशवे तीर्थंकर के कल्याणक में देवों का प्रागमन देख निदान किया, और बन गई अप्सरा । वहां के सुख भोगकर वही कन्या जो अप्सरा थी वह पृथ्वी तिलक नगर में राजा महापाल की महारानी मदनसुन्दरी के मदनावती नाम की, सुगन्धित शरीरी रूपवान कन्या हुई। इस कन्या का विवाह कौशाम्बी नगर के राजा अरिदमन के पुत्र पुरुषोत्तम के साथ हा। कुछ समय बाद एक दिन उसी नगर में सुगुप्ताचार्य महाराज संघ सहित पधारे। राजा पुरुषोतम भी मदनावती के साथ वन्दना को गया, और वन्दना कर पूछ ही बैठा, गुरूवर मदनावती सुगन्ध शरीरी क्यों है ? तब मुनिराज ने बताया कि यह सुगन्ध दशमी व्रत का प्रभाव है। बस फिर क्या था दोनों ने ही दीक्षा ले ली पीर तपश्चरण करके रानी का जीव सोलहवें स्वर्ग में देव हुया । स्वर्ग के अनुपम सुख भोग वह रानी का जीव वसुन्धरा नगर के राजा के यहां रानी देवी को कुक्षि से जन्म लेकर कनकसेतु यथा समय राज सुख भोगकर अपने पुत्र मकरध्वज को राज्य देकर दोक्षा ग्रहण किया और तपश्चरण करके घातिया कर्मों का नाश करके बन गये केवलज्ञानी। कछ समय दिव्य ध्वनि से सम्बोधा भव्य जीवों को और अन्त में शेष कर्मो का भस्मीभूत करके मोक्ष को प्राप्त किया।