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________________ २६० ] व्रत कथा कोष - उसमें पुण्डरीकिणी नामक नगर है, उसमें वज्रसेन नामक तीर्थंकर होने वाले राज्य करते थे। उनकी श्रीकान्ता नामक महारानी थी । उनके उदर से वज्रनाभि नामक एक प्रथम पुत्र उत्पन्न हुआ था। उसको अपना सारा राज्य देकर दीक्षा लेकर तपस्या की जिसके प्रभाव से उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई और समवशरण की रचना हुई । वज्रनाभि ने षटखण्ड को जीतकर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया । उन्होंने तीर्थंकर की पूजा की तथा मनुष्य के कोठे में जाकर बैठ गये । दिव्यध्वनि द्वारा धर्मोपदेश सुना और श्रावक के व्रत के बारे में पूछा। तब उन्हें चतुर्दशमनु व्रत दिया, राजा ने उसका अच्छी तरह पालन किया, षोडश भावना भायी जिससे उन्होंने तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया और अहमिंद्र स्वर्ग में देव हुये । वहां की आयु पूर्ण कर जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र है उसमें आर्यखण्ड में साकेता (अयोध्या) नगरी है, उसमें १४ वें मनु नाभि राजा व उनकी पत्नी मरुदेवी थी उनके पेट से प्रथम पुत्र आदिनाथ हुये । इस प्रकार इसकी कथा है । बाहरसौ चौंतीस व्रत या चारित्रशुद्धि व्रत यह व्रत भादों सुदी प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है, इसमें १२३४ उपवास तथा एकाशन करने पड़ते हैं । दस वर्ष और साढ़े तीन माह में पूर्ण किया जाता है । यदि एकान्तर व्रत किया जाय तो पांच वर्ष पौने दो माह में पूर्ण होता है । उपवास के अनन्तर पारणा के दिन रस त्याग कर या नीरस भोजन करे, प्रारम्भ परिग्रह का त्याग कर भक्ति पूजा में निमग्न रहे। 'ॐ ह्रीं प्रसि प्रा उ सा चारित्रशुद्धि तेभ्यो नम:' मन्त्र का जाप प्रतिदिन १०८ बार दिन में तीन बार करे और व्रत पूर्ण होने पर उद्यापन करने का विधान है । उद्यापन के समय बारह सौ चौंतीस विधान करना चाहिये, पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करना चाहिये, चतुर्विधसंघ को आहारादि उपकरण देवे। कथा इस व्रत को उज्जैन नगरो के राजा हेमप्रभ ने किया था, जिसके प्रभाव
SR No.090544
Book TitleVrat Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar Maharaj
PublisherDigambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Ritual_text, Ritual, & Story
File Size21 MB
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