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व्रत कथा कोष
लिए आकाश मार्ग से नीचे उतरे और उस चैत्यालय की वंदना के लिए मन्दिर में गये । मुनिराज को वहाँ के वनपालक ने देखा, तब वनपालक अपने हाथ में फलफूल लेकर शीघ्र ही राजसभा में गया, फल-फूल राजा के सामने रखकर राजा को नमस्कार पूर्वक वनपालक ने जिन चैत्यालय में नुनिराज के आगमन की शुभ वार्ता कह सुनाई, तब राजा हर्षित होकर सिंहासन से नीचे उतरा और सात पाँव चलकर साष्टांग नमस्कार किया । वनपालक को अपने शरीर पर रहने वाले वस्त्राभरण भेंट में दे दिये ।
मुनिराज उद्यान में आये हैं इस समाचार को पूरे नगर में भेरी - ताडनपूर्वक कह सुनाया और प्रातः राजा प्रजाजन के साथ पैदल ही उस उद्यान में गया । वहां प्रथम जिन चैत्यालय में जाकर प्रदिक्षणा दो, भगवान का भक्तिपूर्वक गुणस्तवन करते हुए साष्टांग नमस्कार किया। फिर उस राजा ने महान उत्सवपूर्वक जिनेन्द्र भगवान का पंचामृत अभिषेक किया, प्रष्ट द्रव्य से पूजन किया, उसके बाद सब लोगों के साथ सुप्रभ मुनिश्वर को नमस्कार करके उनके समीप बैठ गया । मुनिराज के मुख से सब लोगों ने धर्मोपदेश सुना ।
राजा की प्रिय पत्नी पृथ्वी महादेवी मुनिराज को हाथ जोड़कर विनय से उन चारण मुनिश्वर को कहने लगी कि हे स्वामिन ! इस भव में मुझ को सब सुखों की प्राप्ति हुई है परन्तु निःसंतान होने से यह सब सुख निरर्थक हैं ।
रानी के वे वचन सुनकर चारण महामुनि कहने लगे, हे महादेषि ! तुमको पहले भव का अन्तराय कर्म बन्ध है इस कारण तुम को संतान नहीं हुई ।
तब रानी ने कहा कि हे महाराज ! मेरे पूर्व भवों के कार्य क्या हैं, मुझे कृपा कर सुनाओ ।
तब मुनिराज कहने लगे - इस भरतक्षेत्र में कश्मीर नामक एक विशाल देश है, उस देश में रत्नसंचय नाम का एक सुन्दर नगर है, वहां पहले वैश्य में कुल उत्पन्न होने वाला श्रीवत्स नामक एक राजश्रेष्ठि रहता था, उस सेठ की श्रीमती नाम को अत्यन्त सुन्दर गुणों में श्रेष्ठ पत्नी थी, उस पत्नी के साथ में वह श्रेष्ठी श्रानन्द से समय बिता रहा था । उस नगर के जिन चैत्यालय की वंदना करने के लिए मुनिगुप्त नाम के दिव्य-ज्ञानधारी महामुनिश्वर पांच सौ मुनियों के साथ वहां आये ।