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मैंने ज्यादा से ज्यादा सोलापुर के वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री के जिनेन्द्र व्रत कथा संग्रह का मराठी से हिन्दी अनुवाद किया हैं और उसके साथ कवि गोविन्द के व्रत कथा का भी सहारा लिया है व्रत तिथि निर्णय का पूर्ण अंश इस में लिया है क्योकि डा. नेमीचन्द्रजी ने व्रत तिथि निर्णय में बहुत परिश्रम करके एक अच्छा व्रत तिथि निर्णय सहित संक्षिप्त व्रत कथा का संग्रह किया है, मेरे को तो वह पुस्तक बहुत पसन्द आई है, जितना योग्य समझा पूरा का पूरा विषय मैंने इस ग्रन्थ में संकलित किया बाकी सारा संग्रह महाराष्ट्र भाषा के जिनेन्द्र व्रत कथा संग्रह का हिन्दी में अनुबाद किया है। कुछ अज्ञात जी के पुस्तक से भी संकलित किया है, इस संग्रह को सर्वा गीन बनाने के लिये बहुत ही परिश्रम किया है।
इस संग्रह में दक्षिणात्य और उतरा पथ की सर्वविधि ध्यान में रखी है । जिसकों दाक्षिणात्य विधि पसन्द हो वह दक्षिणात्य विधि करे जिसे उत्तरापथ की विधि पसन्द हो वह उतरा पथ की विधि करे।
जैसे उदाहरण के लिए दक्षिण परम्परा तो प्रागमिक परम्परा है, जैसा आगम में लिखा है नैसी पूजा पद्धति पाई जाती है और वह सही भी है । जैसे पंचामृत अभिषेक शासन देवता को पूजा वायना प्रदान, फूलों से जाप, उनसे पूजा, हरे फल, नैवेद्यादिक चढ़ाना, आदि आदि।
किन्तु उत्तर भारत में कहीं पर ये विधियां है तो कहीं पर नहीं हैं । मुझे तो जैसा पागम में और व्रत विधानों में मिला जैसा ही लिखा है। है वहां, नहीं है लिखना और वहां है लिखने का मेरा कोई अधिकार नहीं है। सब प्रथमानुयोग के ग्रंथों में इन सबका सप्रमाण वर्णन पाया जाता है और नैसी ही पद्धति दक्षिण भारत में है। यहां मेरा" यह कहना है कि जिस तरफ की जो पद्धति है या जिस मन्दिर की जो पद्धति, रीति रिवाज, रुढ़ि परम्परा हो वहां जैसा कर लेने देने अथवा स्वयं करे, पूजा पद्धति में फरक होने पर भी सैद्धान्तिक कोई मतभेद नहीं होना चाहिए। जिस शहर या गांव को जैसी पद्धति हो वहां पैसा करे, किसी प्रकार का विवाद नहीं करे।
पूजा आदि तो कषायें मिटाने के लिए होती है। किसी क्रिया को लेकर कषाय बढ़ती है तो बहाँ धर्म नहीं होता है धर्म तो कषायों की शांति में है। यही बात रत्नकरण्ड श्रावकाचार में पं. सदासुखदासजी ने कही है अपनी-अपनी श्रद्धा भक्ति ज्ञान शक्ति के अनुसार विवेकपूर्वक जिनेन्द्र आराधना करते रहना चाहिए। कोई एक द्रव्य से, कोई दो द्रव्य से कोई पांच द्रव्य से तो कोई पाठों ही द्रव्यों से जिनेन्द्र पूजा करता है । एक दूसरे को मिथ्या मत कहो। जिसको श्रद्धा नहीं है वह मत करो लेकिन करने वाले को और आगम गलत मत कहो इसी में शांति है ।
इसलिए मैंने तो पागम के आलोक में जिस प्रकार व्रत कथानों में लिखा पैसा लिखा है, इसमें लिखित क्रियायें आपको पसन्द नहीं है तो नहीं करे, आप अपनी श्रद्धा के अनुसार करें, लेकिन व्रत विधि की निन्दा नही करे, नहीं तो रविव्रत