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सम्यक्त्व प्राप्त होने की अवस्था प्राप्त होती है, पापकर्म के उदय से कभी भी उपरोक्त दान पूजादिक की भावना उत्पन्न ही नहीं होती है, फिर सम्यक्त्व उत्पन्न होने की बात ही नहीं हो सकती, सम्यक्त्व उत्पन्न होने के लिए पूर्वोक्त सामग्री की परम आवश्यकता होती है, फिर भव्य पुण्यात्मा का कभी संसार बढ़ नहीं सकता ।
मोक्ष प्राप्ति के लिए सम्यक्त्व की परम आवश्यकता है। सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए पुण्य की परम प्रायश्यकता है । यही क्रम ससारी जीवों को मोक्ष जाने का है । इसलिए हमारे प्राचार्यों ने पुण्य बांधने के लिए अनेक विकल्प रखें । इसमें मन नहीं लगे तो ये करो, इसमें मन नहीं लगे तो ये करो, कुछ न कुछ धर्मध्यान की क्रिया चलनी चाहिये ।
अनादि से आत्मा के साथ चलने वाले जो पापपुञ्ज हैं, उनको श्रात्मा से दूर करने के लिए एक यही उपाय हैं, दूसरा नहीं । इसलिए मन, वचन, काय से पुण्य की क्रिया करते रहो ।
आचार्यो ने इस धर्मध्यान से सम्बन्धित ही व्रतों का स्वरूप कहा है- अनशन करना मौदर्य, रसपरित्याग करना । अनशन माने प्रौषधोपवास करना श्रवमौदर्य माने भूख से कम खाना नित्य रस परित्याग करना माने घी, तेल, नमक, छोड़कर भोजन
करना ।
व्रतों के भेदों में आचार्यों ने षोडशकारण, दशलक्षण प्रष्टान्हिका, पञ्चमेरू, पुष्पाञ्जलो, रत्नत्रय, सुगन्धदशमी. अनंतव्रत, चंदनषष्टि सिंहनिष्त्रीडित. कवलचन्द्रायण मुक्तावली. रत्नावली एकावली, द्विकावली, णमोकार पैंतीसी, रविवार, शुक्रवार, गौरीव्रत आदि आदि मिलाकर आचार्यों ने कम से कम साढ़ े तीन सौ व्रत कथाओं का निरूपण किया हैं ।
जिसको जिनसेन स्वामी ने हरिवंश पुराण में वरांग चरित्र में, प्रादि-पुराण आदि अनेक प्रथमानुयोग शास्त्रों में लिखा है ।
अलग से पद्मनंदी प्राचार्य श्री ने, देवसेन, सिंहनंदी आदि आचार्यों ने व्रतों को उनके स्वरूप को लिखा हैं ।
तिथि, दिन, वार, नक्षत्रादिकों में ये व्रत किये जाते हैं, जीव जैसा द्रव्य, जैसा क्षेत्र, जैसा काल, जैसा भाव बताया, वैसे करके मोक्ष की तैयारी करता है और परम्परा से जीव मोक्ष चला जाता है ।
मैने अनेक प्रकार के व्रत कथा कोष संग्रह देखे हैं । हस्तलिखित और छपे हुए ग्रन्थों में देखे हैं। कहीं-कहीं चित्रलिखित शैलियों में उपलब्ध होते है । जयपुर में लूणकरणजी पांड्या के मन्दिर में सुगंध दशमी व रविवार व्रत की कथा सुन्दर चित्रों के साथ उपलब्ध होती है । आचार्यों ने व भट्टारकों ने व विद्वानों ने भी अपनी अपनी शैली में जो उपलब्ध था, उसे लिखा है, स्वयं अपने मन से कुछ नहीं लिखा है । नाना प्रकार की पुस्तके