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व्रत कथा कोष
गृहस्थाचार्य को सुवर्णादिक देवे, इस प्रकार इस व्रत की पूर्ण विधि है । इस व्रत को जो पालन करता है, उसको पूर्ण पुण्यास्रव होता है । उस पुण्यप्रभाव से ऐहिक सुख की प्राप्ति करके, देवपर्याय के सुख भोगता है, वहां से लाकर मनुष्य पर्याय प्राप्त कर क्रमशः अनन्त सुख की प्राप्ति कर लेता है । स्त्रियों को व्रत के प्रभाव से स्त्रीलिंग का छेद होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
कथा
इस जम्बुद्वीप के भरत क्षेत्र में कुरूजांगल नाम का एक बड़ा देश है, उस में देश हस्तिनापुर नाम की एक मनोहर नगरी है वहां शांत नामक एक बड़ा पराक्रमी विद्वान राजा राज्य करता था, उस राजा की विमलगंगा नामकी पट्टरानी थी, नगर में सुदर्शन नाम का एक बहुत बड़ा धनाढ्य व धार्मिक राजश्रेष्ठी रहता था, उस श्रेष्ठी की पत्नी का नाम सन्मती था, वह सेठानी सौन्दर्यवान और गुणवान थी, उसके एक गुणवती नामकी कन्या थी, सेठ के घराङ्गण में एक भगवान का चैत्यालय था, उस चैत्यालय में एक बार सुप्रभाती नाम की एक विदुषी आर्यिका माता जी
यी प्रायिका माता जी के पास श्रेष्ठ पुत्री गुणवती जाकर विद्याभ्यास करने लगी, माता जी के पास गुणवती ने पंचाणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रतों को ग्रहण कर श्रद्धापूर्वक पालन करने लगी, एक बार प्रायिका माता जी श्रावकों को अनन्त व्रत विधान का स्वरुप उपदेश में बता रही थी, तब गुणवती ने कहा माता जी यह व्रत मुझे भी प्रदान कीजिये, मैं भी पालन करुंगी। आर्यिका माता जी ने उसको व्रत प्रदान किया, फिर गुणवती कहने लगी कि हे माता जी, आप कृपा करके यह बतलाइये की इस व्रत को किसने पालन किया, व्रत को पालन करने से क्या फल मिलता है ।
गुणवती की प्रार्थना को सुनकर माताजी ने व्रत कहना प्रारम्भ किया । एक समय इस भरतक्षेत्र में षड्खंडाधिपति श्री भरत चक्रवर्ती प्रादि राजा लोक आदिनाथ तीर्थंकर के समवशरण में जाकर बहुत भक्ति से तीन प्रदक्षिणा देकर भगवान की वंदना स्तुति, नमस्कार करके मनुष्य के कोठे में जाकर बैठ गये । धर्मोपदेश सुनकर बड़ी विनय से अपने दोनों हाथ जोड़कर वृषभसेन गणधर से कहने लगे कि