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व्रत कथा कोष
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हे दयानिधे, पाप बताइये कि मेरे चक्रभंग होने का क्या कारण है ? दसरा प्रश्न यह है कि वषभाद्रि पर्वत पर नाम लिखने गया था, तो मुझे नाम लिखने की जगह क्यों नहीं मिली? इन प्रश्नों को सुनकर गणधर स्वामी कहने लगे कि हे भूमंडलाधीश भरत राजन्, असंख्यात उत्सपिणी व अवसर्पिणी काल समाप्त होने के बाद एक हुंडावसर्पिणी काल पाता है, इस काल में आगे हुडावसर्पिणी नामक पंचमकाल पाता है, उस काल दोष से ही तुम्हारा चक्र का भंग हुआ है, और दूसरा कारण भी वही है । तब चक्रवर्ती कहने लगा कि भगवान इस हुडावसर्पिणी कालदोष का परिहार कैसे हो, उसका उपाय बतायो, तब गणधर स्वामी कहने लगे कि हे चक्रेश भरत तुम अनन्त व्रत को विधिपूर्वक करो, आदिनाथ से आगे और भी १३ तीर्थ कर होनेवाले हैं उनके आगे और भी १० तीर्थकर होंगे।
इसी कौशल देश के अन्दर अयोध्या नगरी में सिंहसेन नाम का एक बड़ा गुरगशाली राजा होगा, राजा की रानी का नाम लक्ष्मीमती होगा, राजमहल नगरी पर इन्द्रप्राज्ञा से कुबेर रत्नवृष्टि करेगा, पन्द्रह महिने तक रत्नवृष्टि होगी, नव महिने पूर्ण होने पर गर्भवती रानी के उदर से अनन्तनाथ तीर्थ कर का जन्म होगा, प्रभू के जन्म के प्रभाव से तोनों लोकों के रोग शोक दुःख दारिद्र निवारण होंगे, सभी जीव सुखी होंगे, अनन्तनाथ भगवान का शरीर सुवर्णमयी, ५० धनुष ऊंचा, ३० लाख पूर्व की प्रायु होगी । भगवान बहुत दिनों तक राजैश्वर्य भोगकर जिन दीक्षा धारण करेंगे । घोर तपश्चरण करके घातिकर्मों का क्षय करेंगे, इन्द्र आकर समवशरण की रचना करेंगे, समवशरण में भगवान चार अंगुल ऊपर बैठेंगे। उन प्रभू के जयसेनादि गणधर होंगे । प्रभु का लक्षण सेही होगा, इन तीर्थकर की किन्नर यक्ष व अनन्तमती यक्षी सेवा करेंगे, तीर्थ कर के शासन काल में सुप्रभ नाम का बल देव व पुरुषोतम नाम का वासुदेव होगा, वह नारायण, निशुभ नामक प्रतिनारायण को युद्ध में मारकर त्रिखण्डाधिपति होगा।
.. एक दिन अनन्तनाथ के दिव्य समवशरण में नारायण व बलभद्र दोनों जाकर भक्ति से तीन प्रदक्षिणा देकर वंदना स्तुति पूजा नमस्कारादि करेंगे, मनुष्यों के कोठे में जाकर बैठेंगे धर्मोपदेश सुनकर नारायण बलभद्र गणधर से अनन्तव्रत को