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तप से कर्म निर्जरा होती है, इसलिए 'सुतप करो'-ऐसा कहा है । सुतप ही संपूर्ण कर्म निर्जरा में कारण होता है । तपपूर्वक की गई निर्जरा ही जीव को मोक्ष में ले जाती है । ज्ञानी को, संयमी को अपनी शक्ति के अनुसार अवश्य ही तप करना चाहिए।
आगम में प्राचार्यों ने तप के दो भेद बताये हैं(1) अंतरंग तप (2) बहिरंग तप ।
अंतरंग तप छह प्रकार का होता है- (1) प्रायश्चित् (2) विनय (3) वैयावृत्त (4) स्वाध्याय (5) व्युत्सर्ग (6) ध्यान।
बहीरंग तप भी छह प्रकार का होता है-(1) अनशन (2) अवमौदर्य (3) वृतिपरिसंख्यान (4) रसपरित्याग (5) विविवत शय्यासन (6) कायक्लेश ।
सम्यग्दष्टि संयमो को अंतरंगपूर्वक बहिरंग तप होता है। मिथ्यादृष्टि के बाह्यरूप में हीअंतरंग और बहिरंग तप होते हैं । सम्यक्त्वपूर्णक किया हुआ तप पूर्णतः कर्मनिर्जरा करने में कारण होता है, किन्तु मिथ्यात्वपूर्वक किया हुआ तप मात्र पुण्य बंध का कारण होता है । सम्यग्दृष्टि को पुण्यवंध भी और कर्मनिर्जरा भी होते हैं । अभव्य का पुण्य नौवें ग्रे वेयक तक ले जाकर पुनः संसार में भ्रमण कराता रहता है । भव्य मिथ्यादृष्टि का पुण्य परम्परा से सम्यक्त्व उत्पत्ति का कारण होता है । और सम्यग्दृष्टि का पुण्य परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति कराता है । इस लए प्रत्येक जीव को चाहे मिथ्यादृष्टि हो या सम्यगदृष्टि हो, दोनों को संयमपूर्वक बुद्धिपूर्वक पुण्यबंध करना चाहिए। जीव के लिए यही योग्य है अन्यथा अशुभ भावों में पड़कर दुर्गति में जायेगा।
हां कुतप करने का प्राचार्यों ने निषेध किया हैं, क्योंकि कुतप के प्रभाव से जीव देवगत्यादि के सुख भोगकर पुनः संसार में भ्रमण करने लगता है । अनादिकाल से जीव ने कुतप तो अनत बार किया है, किन्तु सुतप नहीं किया, नहीं तो अब तक जीव मोक्ष चला जाता।
अंतरंग पूर्वक बाह्यतप करना चाहिए, वही सच्ची कर्म निर्जरा का कारण होता है। बहुत लोग वर्तमान में अध्यात्म का सहारा लेकर सहज ही कह देते हैं-दान, पूजा, जप, तप, संयम, चारित्रादि संसार का कारण है, मोक्ष का कारण नहीं। उनके लिए मेरा कहना है कि-किस जीव के लिए संयम तपादिक संसार कारण है ? वे मात्र अभव्य या दूरान्दूर भव्य के लिए संसार का कारण है, भव्य के लिए नहीं। भव्य चाहे मिथ्यात्व अवस्था में हो चाहे सम्यक्त्व अवस्था में हो, उसके लिए ब्रत तप संसार का कारण न बनकर परम्परा से मोक्ष का कारण होता है। क्योंकि वह भब्य है, भव्य कभी न कभी सम्यग्दृष्टि बनेगा ही। सम्यग्दृष्टि बना तो कभी न कभी मोक्ष जाएगा ही, वह संसार में नहीं रूल सकता । लेकिन यह बात अभव्य में घटित नहीं होगी। अभव्य तो कितना ही तप करे, किंतु संसार में ही भ्रमण करेगा।
__मिथ्यादृष्टि का पंचाग्नि तपादिक है, वह तो एक बार दुःख का कारण हो सकता है किन्तु मिथ्यादृष्टि का संयमपूर्वक किया हुआ अनशनादि बाह्य तप दुःख का कारण नहीं हो सकता, वह व्यर्थ नहीं जायेगा, फल देकर ही रहेगा।