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ग्रंथ के संग्रहकर्ता परमपूज्य वात्सल्य रत्नाकर श्रमरणरत्न, स्याद्वाद केशरी, जिनागम सिद्धान्त महोदधि वादिभ सूरी श्री १०८ गरगधराचार्य कथसागरजी महाराज के प्रकाशित ग्रन्थ के बारे में
विचार एवं मंगलमय शुभाशीर्वाद भगवान आदिनाथ से लेकर भगवान महावीर तक चौबीस तीर्थकर हुए है। प्रत्येक तीर्थंकर ने धर्म का स्वरूप भव्य जीवों के लिए कहा है।
चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर थे। उन्होंने भी अन्य तीर्थंकरों के द्वारा प्रतिपादित धर्म को ही कहा है । भगवान महावीर ने धर्म का स्वरूप दो प्रकार से बताया है
(1) मुनिधर्म (2) श्रावक धर्म ।
उक्त दोनों प्रकार के धर्मों में भगवान ने सम्पूर्ण कर्म निर्जरा का कारण संयमपूर्वक तप को कहा है।
जो संयम पूर्वक सुतप का सहारा लेता है, उस जीव के शीघ्र ही आठों कर्म नष्ट हो जाते हैं और वह सिद्धालय में जाकर अनंतकाल तक अनंत सुख भोगता है।
प्राचार्यों ने प्रागम में भी यही बात कही है। तत्वार्थ-सूत्रकार भगवान उमा स्वामी ने तत्वार्थसूत्र में कहा है
"तपसानिजरा च ।'
सुतप से कर्म की निर्जरा होती है। तप के पहले सु विशेषण लगाने का कारण यही है कि संयमपूर्वक तप करों, वह ही सच्ची निर्जरा का कारण है। वैसे तो प्रत्येक जीव को प्रतिक्षण (कर्म स्थिति पूर्ण होने पर) कर्म निर्जरा हो रही है, लेकिन वह निर्जरा अाश्रवपूर्वक है, पाश्रवपूर्वक निर्जरा जीव का संसार ही बढ़ाती है। सच्ची कर्म निर्जरा संवर पूर्वक होती है। संवर संयम से होता है।