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व्रत कथा कोष
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जाति के देवों का निवास है । मध्य लोक से नीचे अधोलोक ( पाताललोक ) है । इस पाताललोक के ऊपरी कुछ भाग में नारकी जीवों का निवास है।
उर्ध्वलोकवासी देव, इन्द्रादि तथा मध्य व पातालवासी ( चारों प्रकार के ) इन्द्रादि देव तो अपने पूर्व संचित पुण्य के उदयजनित फल को प्राप्त हुए इन्द्रिय विषयों में निमग्न रहते हैं । अथवा अपने से बड़े ऋद्धिधारी इन्द्रादि देवों की विभूति व ऐश्वर्य को देख कर सहन न कर सकने के कारण प्रार्तध्यान ( मानसिक में ) निमग्न रहते हैं। और इस प्रकार वे अपनी आयु पूर्ण कर वहां से मर कर मनुष्य व तिर्यञ्चादि गति में स्व-स्व कर्मानुसार उत्पन्न होते हैं।
___ इसी प्रकार पातालवासी नारकी जीव भी निरन्तर पाप के उदय से परस्पर मारण, ताडन, छेदन-वध-बन्धनादि नाना प्रकार के दुःखों को भोगते हुए अत्यन्त प्रात व रौद्र ध्यान से आयु पूर्ण करके मरते हैं । और स्व-स्व कर्मानुसार मनुष्य व तिर्यञ्च गति को प्राप्त करते हैं ।
तात्पर्यः--ये दोनों ( देव तथा नारक ) गतियां ऐसी हैं कि इनमें से बिना आयु पूर्ण हुए न तो निकल सकते हैं और न वहां से सीधे मोक्ष ही प्राप्त कर सकते हैं । क्योंकि इन दोनों गति के जीवों का शरीर वैक्रियिक है, जो कि अतिशय पुण्य व पाप के कारण उनके फल सुख किंवा दुःख भोगने के लिए ही प्राप्त हुआ है। इसलिए इनसे इन पर्यायों में चारित्र धारण नहीं हो सकता, और चारित्र बिना मोक्ष नहीं होता है । इसलिये इन गतियों से निकलकर मनुष्य या तिर्यञ्च गतियों में माना ही पड़ता है।
तिर्यञ्च गति में भी एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चौइन्द्रिय और असैनी पंचेंद्रिय जीवों को तो मन के अभाव से सम्यग्दर्शन ही नहीं हो सकता है। और बिना सम्यग्दर्शन के सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र भी नहीं होता है । तथा बिना सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र के मोक्ष नहीं होता है। रहे सैनी पंचेद्रिय जीव, सो इनको सम्यक्त्व हो जाने पर अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम होने से एकदेश व्रत हो सकता है । परन्तु व्रत नहीं, तब मनुष्य गति ही ऐसी गति ठहरी कि जिसमें यह जीव सम्यक्त्व सहित पूर्ण चारित्र को धारण करके