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________________ ११२ ] व्रत कथा कोष व्रत कथा कोष घाति कर्म को नष्ट कर, पायो केवल ज्ञान । हुये श्रर्हन्त परमात्मा हो जाने को भव पार ।। गरधर सारद माय को, नमन करूं मैं आज । महावीरकीति गुरुदेव को, करूं नमन हर्षाय ॥ व्रत कथा संग्रह करू, हो जिससे पुण्य अपार । परंपरा से मोक्ष मिले, भ्रष्ट कर्म नश जाय ॥ अनंतानंत आकाश के ठीक मध्य भाग में ३४३ घनराजू प्रमाण क्षेत्र का अनादिनिधन पुरुषाकार लोकाकाश है । वह घनवात, घनोदधिवात और तनुवात वलयों से वेष्टित् है । अधोलोक, मध्यलोक और उर्ध्वलोक इन तीन विभागों से विभक्त है । यह लोकाकाश उर्ध्व, मध्य और अधोलोक इस प्रकार तीन भागों में बटा हुआ है । इस ( लोकाकाश ) के बीचोंबीच १४ राजू ऊँची और १ राजू चौड़ी लम्बी चौकोर स्तंभवत् एक त्रस नाड़ी है अर्थात् इसके बाहर त्रस जीव ( दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय, पांच इंद्रिय जीव ) नहीं रहते हैं । परन्तु एकेन्द्रिय जीव स्थावर निगोद तो समस्त लोकाकाश में त्रस नाड़ी और उससे बाहर भी वातवलयपर्यंत रहते हैं । इस त्रस नाड़ी के उर्ध्व भाग में सबसे ऊपर तनुवातवलय के अन्त में समस्त कार्यों से रहित अनंत दर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्यादि अनंत गुणों के धारी अपनी-अपनी अवगाहना को लिए हुए अनंत सिद्ध भगवान् विराजमान हैं। उससे नीचे ग्रहमिन्द्रों का निवास है और फिर सोलह स्वर्गों के देवों का निवास है । स्वर्गो के नीचे मध्यलोक के उर्ध्व भाग में सूर्यचन्द्रमादि ज्योतिषी देवों का निवास है । ( इन्हीं के चलने प्रर्थात् नित्य सुदर्शन आदि मेरुत्रों की प्रदक्षिणा देने से दिन रात और ऋतुओं का भेद अर्थात् काल का विभाग होता है ।) फिर नीचे के भाग में पृथ्वी पर मनुष्य, तिर्यञ्च, पशु श्रौर व्यन्तर
SR No.090544
Book TitleVrat Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar Maharaj
PublisherDigambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Ritual_text, Ritual, & Story
File Size21 MB
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