SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्रत कथा कोष [७३ अद्दिमजावय प्राणिय जाणियह मज्झे तिहि । पडरगहोइ तहवर प्राइहय अंतली वय ॥ व्याख्या-अष्टम्या यावत्पूणिमान्तं व्रतं चाष्टान्हिकं जानीहि । प्रस्य मध्ये तिथिपतनं भवति, तहि व्रतस्यादिदिनमारभ्य व्रतान्तमवलोकयेत्यर्थः ।। अर्थ:--यदि व्रत के मध्य में तिथि-ह्रास हो तो व्रत की समाप्ति किस प्रकार करनी चाहिए, इस पर अन्य प्राचार्यों द्वारा कही गयी गाथा को कहते हैं अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक जो व्रत किया जाता है, उसे अष्टान्हिक व्रत कहते हैं । यदि इस व्रत के दिनों में किसी तिथि का ह्रास हो तो व्रत प्रारम्भ करने के एक दिन पहले से लेकर व्रत की समाप्ति तक व्रत करना चाहिए । तथान्यैरप्युक्ता वयविहीरणं च मझे तिहिए पडणं वजाई होइ जई । मूलदिरणं पारभिय अंते दिवसम्मि होइ सम्मतं ।। व्याख्या--व्रतविधीनां च मध्ये तिथिपतनं यदि भवेत्, तदा मूलादने प्रारभ्य अन्त्ये दिवसे च भवति समाप्तमिति केचित् । अर्थ--व्रत विधि के मध्य में यदि किसी तिथि का ह्रास हो तो एक दिन पूर्व से व्रत प्रारम्भ किया जाता है और व्रत की समाप्ति अन्तिम दिन होती है । यही सम्यक्त्व है, ऐसा कुछ प्राचार्य कहते हैं। मास अधिक होने पर सांवत्सरिक क्रिया कैसे करनी चाहिए ? मासाधिक्ये कि कर्तव्यमिति चेत्तदाह-- संवत्सरे यदि भवेन्मासो वै चाधिकस्तदा । पूर्वस्मिन्न व्रतं कार्य त्वपरस्मिन् कृतं शुभम् ।। अर्थ-अधिकमास होने पर व्रत कब करना चाहिए ? प्राचार्य कहते हैं कि
SR No.090544
Book TitleVrat Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar Maharaj
PublisherDigambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Ritual_text, Ritual, & Story
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy