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________________ प्रत कथा कोष [ ६६ ग्रहण किया गया है । एकावली, द्विकावली व्रत भी सावन ही हैं, इनके करने के लिए भी चान्द्रतिथियों का कोई निश्चित विधान नहीं है । यद्यपि उक्त दोनों प्रतों में उपवास करने की तिथियां निश्चित हैं, फिर भी इन्हें चान्द्रदिन सम्बन्धी व्रत मानना उपयुक्त नहीं जंचता है । इन दोनों व्रतों का सौरदिन सम्बन्धी व्रत माना जाय, तो अधिक उपयुक्त हो सकता है। तिथि घटने का प्रभाव सबसे अधिक दशलक्षण, रत्नत्रय और अष्टान्हिका इन व्रतों पर पड़ता है । क्योंकि ये तीनों बत निश्चित अवधि वाले होते हुए भी सौर और चान्द्र दोनों ही प्रकार के दिनों से सम्बन्ध रखते हैं। व्रतारम्भ की तिथिसंख्या यथार्थ होने पर चान्द्रतिथि ग्रहण की जाती है । तात्पर्य यह है कि उदयकाल में कम से कम छः घटी प्रमाण पञ्चमी तिथि के होने पर दशलक्षण व्रत प्रारम्भ किया आता है । तथा समाप्ति चतुर्दशो को । यदि आदि, मध्य और अन्त में तिथिहानि हो तो एक दिन पहले अर्थात् चतुर्थी से ही बत प्रारम्भ कर दिया जाता है । समाप्ति सर्वदा चतुर्दशी को ही की जाती है । प्रष्टान्हिका व्रत में भी यही बात है, यह व्रत भी आदि, मध्य प्रऔर अन्त में तिथि को हानि होने पर एक दिन पहले से प्रारम्भ कर दिया जाता है । इस व्रत की समाप्ति पूर्णिमा को होती है । रत्नत्रय व्रत को भी तिथि की हानि होने पर एक दिन पहले से करना चाहिए । इन सब बतों में तिथिक्षय होने पर व्रत एक दिन पहले से करते हैं । किन्तु तिथि-वृद्धि होने पर एक दिन और अधिक करते हैं। बततिथियों के आदि, मध्य और अन्त में तिथि की वृद्धि हो जाने पर नियत अवधि तक ही-बत नहीं किया जाता । बस्कि एक दिन अधिक व्रत किया जाता है। तिथिक्षय होने पर गौतमादि मुनीश्वरों का मत प्रादिमध्यान्तभेदेषु विधिर्यदि विधीयते । तिथिहासे समुद्दिष्टं गौतमादिगणेश्वरः ।। अर्थ-आदि, मध्य और अन्त में यदि तिथिक्षय हो तो गौतमादि मुनीश्वरों का कथन है कि एक दिन पहले से व्रत तिथि को सम्पन्न करना चाहिए। विवेचन-जैनाचार्यों ने तिथिहास और तिथिवृद्धि होने पर नियत अधिक
SR No.090544
Book TitleVrat Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar Maharaj
PublisherDigambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Ritual_text, Ritual, & Story
File Size21 MB
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