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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका कओ ) आचार्य भक्ति सम्बंधी कायोत्सर्ग क्रिया ( तस्स आलोचउं इच्छामि ) तत्संबंधी आलोचना करने की इच्छा करता हूँ ( सम्मणाण ) सम्यक् ज्ञान ( सम्मदंसण ) सम्यक् दर्शन ( सम्मचरित्त जुत्ताणं ) सम्यक् चारित्र से युक्त { पंचविहाचाराणं ) पाँच प्रकार के आचार दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार के पालक ( आयरियाणं ) आचार्य परमेष्ठी ( आयारादिसुदणाणोवदेसयाणं ) आचारांग आदि द्वादशांग श्रुत ज्ञान के उपदेशक ( उवज्झायाणं ) उपाध्याय परमेष्ठी ( तिरयणगुणपालणरयाणं ) तीन रत्न–सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र रूप गुणों के पालन करने में रत ( सन्चसाहूणं) सर्व साधु परमेष्ठी की मैं ( णिच्चकाल ) प्रतिदिन हमेशा ( अच्चेमि ) अर्चा करता हूँ, ( पुज्जेमि ) पूजा करता हूँ ( वंदामि ) वन्दना करता हूँ ( णमस्सामि ) नमस्कार करता हूँ ( दुक्खक्खओ) दुखों का क्षय हो ( कम्मक्खओ ) कर्मों का क्षय हो ( बोहिलाहो ) रत्नत्रयरूप बोधि का लाभ हो ( सुगइ-गमया ) उत्तम, अच्छी गति में गमन हो ( समाहिमरणं ) समाधिमरण हो ( मज्झं ) मुझे ( जिनगुणसंपत्ति ) जिनेन्द्रगुण रुप संपत्ति की ( होउ ) प्राप्ति हो।
नमः श्रीवर्धमानाय निधूत-कलिरात्मने । सालोकानां त्रिलोकानां यद्-विद्या दर्पणायते ।।१।।
अन्वयार्थ-जिन्होंने ( आत्मने ) आत्मा से ( कलिलनिर्धूत ) पाप मल को जड़ से धो डाला है। नष्ट कर दिया है, ( यद् ) जिनका ( विद्या ) ज्ञान ( स अलोकानां ) अलोक सहित ( त्रिलोकानां ) तीनों लोकों को ( दर्पणायते) दर्पण के समान आचरण करता है ऐसे ( श्री वर्धमानाय ) अन्तरंग बहिरंग लक्ष्मी के स्वामी वर्धमानजिनेन्द्र के लिये ( नमः ) नमस्कार हो ।
समता सर्व-भूतेषु संयमः शुभ-भावना ।
आर्त्त-रौद्र-परित्याग-स्तद्धि सामायिकं मतं ।। २।।
अन्वयार्थ—( सर्वभूतेषु ) सब जीवों में ( समता ) समता भाव धारण करना ( संयमे ) संयम में शुभभावना होना ( आर्त्तरौद्रपरित्याग ) आर्तध्यान, रौद्रध्यान का पूर्ण त्याग करना ( तद् ) वह ( हि ) निश्चय से ( सामायिकं ) ( मतम् ) माना गया है।
अथ सर्वातिचार विशुद्धयर्थ ( पाक्षिक ) ( चातुर्मासिक) (वार्षिक)