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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका अन्वयार्थ-( राग-बंध-पदोस ) राग-बन्ध-द्वेष [हरिसं] हर्ष ( च ) और ( दीणभावयं ) दीनभाव, ( उस्सुगत्तं ) पञ्चेन्द्रिय विषयों की वासना की उत्सुकता ( भयं ) भय ( सोगं) शोक, ( रदि) रति (च) और ( अरदि) अरति को मैं ( वोस्सरे ) छोड़ता हूँ।
भावार्थ-हे जिनेन्द्र ! मैं आपकी साक्षीपूर्वक राग-द्वेष-बन्ध, हर्ष, दैन्य प्रवृत्ति/भावना, पञ्चेन्द्रिय विषयों की वासना का आकर्षणा, लोलुपता, आसक्ति, भय, शोक, रति और अरति का त्याग करता हूँ।
पश्चात्ताप सूत्र हा! दह-कयं हा ! दह-चिंतियं भासियं च हा! दुटुं अंतो-अतो उज्झाम पच्छत्तावण वदंतो ।।५।।
अन्वयार्थ--( हा दुट्ठकयं ) हा ! मैंने जो दुष्ट कार्य किया है, ( हा दुट्टचिंतियं ) हा ! मैंने जो दुष्ट चिन्तन किया है, (च) और ( हा दुटुं भासियं ) हा ! मैंने जो दुष्ट वचन कहे हैं । ( वेदंतो ) उन सबका वेदन करता हुआ ( अंतो अंतो ) मैं अन्दर ही अन्दर ( पच्छत्तावेण ) पश्चात्ताप से (डज्झमि ) जल रहा हूँ।
भावार्थ१. हा ! यदि मैंने काय से कोई दुष्ट कार्य किया हो । २. हा ! यदि मैंने मन से कोई दुष्ट चिन्तन किया हो और
३. हा ! यदि मैंने कोई दुष्ट वचन बोला हो तो मैं उन मन-वचन-काय की दुष्ट क्रियाओं को दुष्कृत-अशुभ समझता हुआ, पश्चात्ताप से भीतर ही भीतर पीड़ित हुआ जल रहा हूँ अर्थात् अपने दुष्कृत्यों से मेरा अन्त:करण जल रहा है अत: हे जिनेन्द्र ! आपकी साक्षीपूर्वक इनका त्याग करता हूँ।
दव्धे खेत्ते काले भावे न कदावराह-सोहणयं । जिंदा-गरहण-जुसोमण वच-कायेण पडिक्कमणं ।।६।।
अन्वयार्थ (दव्वे ) द्रव्य में ( खेत्ते ) क्षेत्र में ( काले ) काल में ( य ) और ( भावे ) भाव में ( कदावराह सोहणयं) किये अपराधों की शोधना करने के लिये ( जिंदण-गरहण-जुत्तो ) निंदा और गर्दा से युक्त होता हुआ ( मण-वच-कायेण ) मन-वचन-काय से ( पडिक्कमणं ) मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।