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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ___ अन्वयार्थ ( जिनेन्द्र ) हे जिनेन्द्र ! ( त्रैलोक्याधिपतेः ) हे तीन लोक के अधिपति ! मुझ ( पापिष्ठेन ) पापी ( दुरात्मना ) दुष्ट ( जड़धिया ) जड़ बुद्धि ( मायाविना ) मायाचारी लोभना ) लोभी ( रागद्वेष-मलीमसेन ) राग-द्वेष रूपी मल से मलिन ( मनसा ) मन से ( यत् ) जो ( दुष्कर्म ) अशुभ कर्म ( निर्मितं ) किये हैं । ( सततं ) निरन्तर ( सत्पथे ) सन्मार्ग में ( वर्वर्तिषुः ) प्रवृत्ति करने की इच्छा करने वाला ( अहं ) मैं ( अधुना ) इस समय ( भवतः ) आपके ( श्री-पादमूले ) अनन्त चतुष्टयरूप लक्ष्मी से सम्पन्न चरण-कमलों में ( निन्दापूर्वं ) निन्दापूर्वक ( जहामि ) छोड़ता हूँ। ___भावार्थ हे तीन लोक के अधिपति जिनेन्द्र देव ! मुझ पापी, दुष्ट,
अज्ञानी, मायाचारी, लोभी के द्वारा राग-द्वेष रूपी मल से मलीन मन के द्वारा जिन पाप-कर्मों का उपार्जन किया गया है, उन पाप कर्मों को मैं अनंत चतुष्टय रूप लक्ष्मी से सम्पन्न आपके चरण-कमलों में निन्दापूर्वक छोड़ता हूँ। तथा अब इस समय निरन्तर सन्मार्ग में प्रवृत्ति करने की इच्छा करता हूँ। [जिनेन्द्र की साक्षीपूर्वक पाप-कर्मों का त्याग करता हूँ" इस प्रकार यह संकल्प सूत्र है ]
संकल्प सूत्र खम्मामि सव्य-जीवाणं सव्ये जीवा खमंतु मे । मित्नी मे सव्य- भूदेसु वैरं मज्झं ण केण वि ।।३।।
अन्वयार्थ ( सव्वजीवाणं ) समस्त जीवों को ( खम्मामि ) मैं क्षमा करता हूँ ( सव्वे जीवा ) सभी जीव ( मे खमंतु ) मुझे क्षमा करें। ( मे ) मेरा ( सवभूदेसु) सभी जीवों में (मित्ती ) मैत्रीभाव है, ( केण वि ) और किसी के प्रति ( मज्झं ) मेरा ( वैरं ) वैरभाव (ण) नहीं है। ___भावार्थ-मैं संसार के समस्त प्राणियों के प्रति क्षमा भाव धारण करता हूँ। समस्त प्राणी भी मुझ पर क्षमा भाव धारण करें । संसार के सभी जीवों में मेरा मैत्री 'माव है तथा किसी भी जीव के साथ मेरा वैर-विरोध नहीं हैं।
राग परित्याग सूत्र राग-बन्ध-पदीसं च हरिसं दीण-भावयं । उस्सुगत्तं भयं सोगं रदि-मरदिं च वोस्सरे ।।४।।