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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ( भव-विहानये ) संसार-भ्रमण का छेद करने के लिये ( विनतः अस्मि ) विनयपूर्वक, विधिवत् नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ- मनध्य लोक में ५ भात । ऐरावत व ५ विदेह क्षेत्रों में १५ कर्मभूमियाँ हैं । इन पन्द्रह भूमियों में भरत-ऐरावत के चतुर्थ काल मे व विदेह क्षेत्र में सदाकाल तीर्थंकरों के द्वारा तीर्थ की प्रवर्तना होती रहती है । एक विदेह में ३२ आर्यखाण्ड हैं, अत: एक विदेह में ३२ तीर्थकर होते हैं अत: पाँच विदेह सम्बन्धी १६० आर्यखण्ड भूमियों के १६० तीर्थकर हुए तथा ५ भरत संबंधी, ५ ऐरावत सम्बन्धी १०, आर्यखण्डक्षेत्रों के १० तीर्थंकर हुए । इस प्रकार सब मिलाकर १७० आर्यखण्डों के १७० तीर्थंकर हुए। ऐसे भूत-भावी वर्तमान के १७० तीर्थंकरों को मैं नमस्कार करता हूँ | यदि एकसाथ अधिक से अधिक तीर्थकर अढाई द्वीप में हों तो १७० हो सकते हैं अधिक नहीं।
भगवान् वृषभदेव की स्तुति अस्यामवसर्पिण्यां, वृषभजिनः प्रथमतीर्थकर्ता भर्ता । अष्टापदगिरिमस्तक, गतस्थितो मुक्तिमाप पायान्मुक्तः ।। २९।।
अन्वयार्थ-( अस्याम् अवसर्पिण्याम् ) इस अवसर्पिणी काल में ( प्रथम तीर्थकर्ता ) तीर्थ के आदि कर्ता प्रथम तीर्थंकर ( वृषभजिन: स्वामी) वृषभनाथ स्वामी ( कर्ता-भर्ता ) असि-मसि-कृषि-शिल्प-वाणिज्य और कला इन छ: कर्मों के उपदेशकर्ता व जनता के पोषक थे। ( अष्टापदगिरिमस्तक गत-स्थितः पापात् मुक्तः ) कैलाश पर्वत के शिखर पर पद्मासन से स्थित हो पापों से छूटकर ( मुक्तिम् आप ) मोक्ष को प्राप्त हुए।
भावार्थ-इस हुण्डावसर्पिणी काल में जब तृतीय काल के तीन वर्ष साढे आठ माह शेष थे, तब युग के आदि तीर्थकर वृषभदेव घातिया व अघातिया दोनों ही दुष्कर्मों का क्षय करके कैलाश पर्वत के शिखर से पद्मासन से मुक्त हुए । वृषभदेव ने राज्यावस्था में प्रजा को असि-मसिकृषि-वाणिज्य-शिल्प और कला इन षट्कर्मों को करने का उपदेश दिया था अत: वे “प्रजापति'' कहलाते थे।