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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका तानि सदा वंदेऽहं, भानुप्रतिमानि यानि कानि च तानि । यशसां महसां प्रतिदिश- मतिशय-शोभा-विभाझि पापविभाञ्जि ।। २७ ।।
अन्वयार्थ-( येषु ) जिन अकृत्रिम जिनालयों में ( जिनानां प्रतिमाः ) जिनेन्द्रदेव की प्रतिर्माएँ ( पञ्चशतशरासन-उच्छ्रिता: ) ५०० धनुष ऊँची हैं ( सत्प्रतिमाः ) सुन्दर, समीचीन आकार वाली, अत्यन्त मनोहर ( मणिकनक-रजत-विकृता ) मणि-स्वर्ण-चाँदी से बनी हुई हैं तथा ( दिनकर-कोटि-प्रभाधिक-प्रभदेहाः ) करोड़ों सूर्यों को प्रभा से भी अधिक प्रभावाले शरीर से युक्त हैं ( तानि ) उन जिनेन्द्र भवनों, जिनालयों को ( अहं सदा वन्दे ) मैं सदा नमस्कार करता हूँ । इसके साथ ही ( प्रतिदिशं ) प्रत्येक दिशा में ( यशसां महसां ) यश और तेज की ( अतिशयशोभा-विभाञ्जि ) अत्यधिक शोभा को प्राप्त तथा ( पाप-विभाजि ) पाप को नष्ट करने वाले ( भानु प्रतिमानि ) सूर्य के समान ( यानि कानि च ) जितने भी अन्य मन्दिर हैं ( तानि ) उन सबको ( अहं ) मैं ( सदा वन्दे ) हमेशा नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ-नन्दीश्वर द्वीप के ५२ अकृत्रिम जिनालयों में जिनेन्द्रदेव के समस्त वीतराग जिनबिम्ब ५०० धनुष ऊँचे, सुन्दर आकार वाले व मनोज्ञ है। सभी जिनबिम्ब अपनी तेज कान्ति से करोड़ों सर्यों की प्रभा से भी अधिक दीप्ति से देदीप्यमान कान्ति के धारक हैं तथा मणि-स्वर्ण व चाँदी के बने हुए हैं, इनके अलावा प्रत्येक दिशाओं में भी यश और कान्ति को विस्तृत करने वाले, पापनाशक, सूर्यसम तेजके धारक समस्त जिनमन्दिरों को मैं नित्य, सदाकाल वन्दन करता हूँ, नमस्कार करता हूँ। इन सब चैत्यालयों की वन्दना से मेरे समस्त पापों का क्षय हो ।
तीर्थङ्करों की स्तुति सप्तत्यधिक-शतप्रिय, धर्मक्षेत्रगत-तीर्थकर-वर-वृषभान् । भूतभविष्यसंप्रति- काल-भवान् भवविहानये विनतोऽस्मि ।। २८।।
अन्वयार्थ ( भूत-भविष्यत्-सम्प्रतिकाल-भवान् ) अतीतकाल, भावीकाल और वर्तमान काल में होने वाले ( सप्तति-अधिक-शत-प्रियधर्मक्षेत्र-गत-तीर्थकर-वर-वृषभान् ) जिन क्षेत्रों में धर्म अत्यन्त प्रिय है ऐसे १७० प्रिय धर्मक्षेत्रों-आर्यखण्डों में स्थित अतिशय श्रेष्ठ तीर्थकरों को मैं