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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका दर्शन, क्रीडा, संगीत और नाटक देखने के गृहों से ( विकसित-जलरुहकुसुमैः शरदि ) खिले हुए कमल पुष्पों के कारण शरद ऋतु में ( शशिग्रह-ऋक्षैः ) चन्द्रमा, गृह तथा ताराओं से ( नभस्यमानैः ) आकाश के समान दिखने वाले ( वापीसत्पुष्करिणी-सुदीर्घिका- आदि-अम्बुसंश्रयैः ) वापिका, पुष्पकारिणी तथा सुन्दर दीर्घिका आदि जलाशयों से ( समुपेतैः ) प्राप्त ( प्रत्येक अष्टशत परिसंख्यान: ) प्रत्येक एक सौ साठ, एक सौ आठ संख्या वाले ( भृङ्गाराब्दक-कलशादि-उपकरणः ) झारी, दर्पण तथा कलश आदि उपकरणों से और ( चित्रगुणैः ) आश्चर्यकारी गुणों से युक्त { कृत हाणाझ निगा वितण्डाजानः झण-झण शब्द करते हुए घंटाओ के समूहों से ( गन्धकुटीगत मृगपति विष्टर रुचिराणि ) गन्धकुटी-गर्भगृह में स्थित सिंहासनों से सुन्दर तथा ( विविध-विभव-युतानि ) नाना प्रकार के वैभव से सहित ( ईश्वरेशिनां ) जिनेन्द्रदेव के ( हिरण्यमयानि तानि भवनानि ) स्वर्णमय वे जिन भवन/अकृत्रिम चैत्यालय ( नित्य प्रविभाजन्ते) नित्य ही प्रकृष्ट शोभा को प्राप्त होते हैं।
भावार्थ-नन्दीश्वर द्वीप के सभी अकृत्रिम चैत्यालय स्वर्णमयी हैं वे सभी चैत्यालय तोरणों, वेदी, वन, उपवन, चैत्यवृक्ष, मानस्तम्भ, ध्वजाओं की दस-दस पंक्तियों, गोपुरों तीन-तीन कोटों, तीन-तीन शालाओं से उत्तम-उत्तम मंडपों से सुशोभित हैं । जिन मंडपों में बैठकर अभिषेक देखते हैं ऐसे अभिषेक मण्डप, क्रीडा स्थान, संगीतभूमि, नाटकशालाओं से सुशोभित हैं । प्रफुल्ल/खिले हुए कमलों से युक्त, जलाशयों से सहित हैं, झारी आदि अष्टमंगल द्रव्यों से सहित हैं। दूर-दूर तक झन-झन की आवाज करने वाले घण्टाओं के समूह से सुशोभित हैं तथा गन्धकुटी के भीतर रत्नमयी सिंहासन, छत्रचमर आदि अनेक प्रकार की विभूतियों ये युक्त जिनेन्द्रदेव के अकृत्रिम चैत्यालय सदैव ही दैदीप्यमान रहते हैं, शोभायमान होते हैं।
नन्दीश्वर के चैत्यालयों में स्थित प्रतिमाओं का वर्णन येषु-जिनानां प्रतिमाः, पञ्चशत-शरासनोच्छ्रिताः सत्पतिमाः । मणिकनक-रजतविकृता, दिनकरकोटि-प्रभाधिक-प्रभदेहाः ।। २६।।