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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
४१३ तद्देव्यः ) उज्ज्वल गुणों से युक्त उनकी देवियाँ ( मङ्गल पात्राणि बिभ्रति स्म ) अष्ट मंगल द्रव्यों को धारण करती हैं, ( अप्सरस: नर्तक्य: ) अप्सराएँ नत्य करती हैं तथा ( शेषसरा: । अन्य देवगण ( तत्र ) वहाँ ( लोकन व्यग्रधियः ) उस अभिषेक के दृश्य को देखने में दतचित्त रहते हैं।
भावार्थ----उस अवर्णनीय शोभासम्पन्न अष्टम नन्दीश्वर द्वीप का अलगअलग विशेष वर्णन कहाँ तक करें जहाँ सौधर्म इन्द्र प्रमुख रहता है तथा वही स्वयं समस्त जिनप्रतिमाओं का दिव्य जल आदि सुगन्धित द्रव्यों से अभिषेक करता है तथा चन्द्रमा सम निर्मल यश के धारक शेष इन्द्रों का समूह परिचारक के रूप में सौधर्म इन्द्र की अभिषेक सहायता करता है। गुणों से युक्त उनकी देवियाँ अष्ट मंगल द्रव्यों को हाथों में लेकर खड़ी रहती हैं, अप्सराएँ नृत्य करती रहती हैं तथा शेष देवों का समूह अभिषेक के इस महा उत्सव को देखने में एकाग्र हो जाता है।
अष्टमङ्गल द्रव्यछत्रं ध्वजं कलश चामर सुप्रतीक, भंगार-ताल मतिनिर्मल दर्पणं च । शंसंति मालमिदं निपुणस्वभावाः, द्रव्य स्वरूपमिह तीर्थकृतोऽष्टधैव ।।
१. छत्र २. ध्वजा ३. कलश ४. चंवर ५. स्वस्तिक ६. झारी ७. घंटा और ८. स्वच्छ दर्पण। वाचस्पति-वाचामपि, गोचरतां संव्यतीत्य यत्-क्रममाणम् । विबुधपति-विहित-विभवं, मानुष-मात्रस्य कस्य शक्तिः स्तोतुम् ।।१७।।
अन्वयार्थ—( यत् ) जो महामह पूजन (विबुधपति-विहित-विभवं ) इन्द्रों के द्वारा विशेष वैभव से सम्पन्न होता है ( वाचस्पति-वाचाम्-अपि ) वृहस्पति के वचनों की भी ( गोचरतां ) विषयता को ( संव्यतीत्य ) उल्लंघन कर ( क्रममाणं ) प्रवर्तमान है ( स्तोतुं ) उस महामह पूजन की स्तुति करने के लिये ( कस्य मानुष मात्रस्य शक्तिः ) किस मनुष्य मात्र की शक्ति सामर्थ्य हो सकती है?
भावार्थ-नन्दीश्वर द्वीप में सौधर्म आदि इन्द्रों के द्वारा अष्टह्निका पर्व के आठ दिनों में जो महामह-पूजा निरन्तर महावैभव के साथ, विशेष भक्ति, नृत्य, गान आदि के साथ की जाती है, उस पूजन की शोभा और