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________________ ३८८ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका भावार्थ—जिस कर्तव्यशील मानव ने देव-शास्त्र-गुरु के चरणों में समर्पण दिया है जो षट् आवश्यकों को पालन करने वाला है उसकी एकामात्र जिनेन्द्रभक्ति ही उसको नरक-तिर्यञ्च रूप अशुभ गतियों से बचाने के लिये, तीर्थकर, चक्रवर्ती, देवेन्द्र जैसे महापुण्यों को पूर्ण करने तथा मुक्ति लक्ष्मी को प्राप्त कराने में पर्याप्त है। अर्थात् एक ही जिनभक्ति समस्त स्वर्ग-मोक्ष सुखों को देने में समर्थ है। पञ्चअरिंजयणामे पञ्च, य मदि-सायरे जिणे वन्दे । पञ्च जसोयरणामे, पञ्चय सीमंदरे बन्दे ।।९।। अन्वयार्थ—मैं पञ्चमेरु सम्बन्धी ( पंच अरिंजयणामे ) अरिंजय नाम के गाँन ! य) और ( गदिसायोज) जिसका नाम के पाँच ( जिणे वंदे ) जिनेन्द्र की वन्दना करता हूँ ( य ) और ( पंच जसोयरणामे ) यशोधर नामके पाँच तथा ( पंच सीमंदरे ) सीमंदर नाम के पाँच ( जिणे वंदे ) तीर्थंकरों की वन्दना करता हूँ। भावार्थ---पाँच मेरु संबंधी अरिंजय नाम के पाँच, मतिसागर नाम के पाँच, यशोधर नाम के पाँच तथा सीमंदर नाम के पाँच ऐसे बीस तीर्थंकरों की वन्दना करता हूँ। रयणत्तयं च वंदे, चउवीस जिणे च सव्वदा वंदे। पञ्चगुरूणां वंदे, चारणचरणं सदा वंदे ।।१०।। अन्वयार्थ—( च ) और मैं ( रयणत्तयं वंदे ) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र रूप रत्नत्रय को नमस्कार करता हूँ ( च ) और ( चउवीसजिणे सव्वदा वंदे ) वृषभ आदि वीरान्त चौबीस तीर्थकरों की सदा वन्दना करता हूँ ( पंच गुरूणां वंदे ) पञ्च-परमेष्ठी रूप पञ्च महागुरुओं का सदा वन्दन करता हूँ तथा ( चारण-चरणं सदा वंदे) चारण ऋद्धि धारक मुनियों के चरणों की सदा आराधना करता हूँ। भावार्थ हे वीतराग देव ! मैं सदा रत्नत्रय की आराधना/वन्दना करता हूँ, प्रथम वृषभ तीर्थंकर से अन्तिम महावीरपर्यन्त चौबीसों तीर्थकरों को नमस्कार करता हूँ, अर्हत्-सिद्ध आचार्य-उपाध्याय व सर्वसाधु पञ्चपरमेष्ठी रूप पञ्च महागुरुओं की सदा वन्दना करता हूँ तथा चारण ऋद्धि के धारक युगल मुनियों के चरणों की सदा आराधना, वन्दना-नमन, करता हूँ |
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
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