________________
३७७
विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका भावार्थ हे वीतराग, देवाधिदेव, जिनेन्द्र प्रभो ! मैंने बाल्यकाल से लेकर आजतक का समय आप वीतराग प्रभु की आराधना, अर्चना, वन्दना में व्यतीत किया । आपकी आराधना, श्रद्धावनत भक्तों को इच्छित फल देने वाली कल्पलता है। आपकी आराधना आराधक को इष्ट का संयोग कराती है । हे प्रभो ! आज मैं आपके श्रीचरणों में उस भक्ति और आराधना का अनुपम फल माँगने आया हूँ। वह मेरी याचना यह है कि "हे प्रभो ! प्राणों के विसर्जन काल में, मृत्यु की अन्तिम बेला में मेरा कण्ठ आपके गुणों का स्मरण करता रहे । अर्थात् अन्तिम क्षण में मैं आपके नाम का उच्चारण करते हुए प्राणों का त्याग करूँ । मेरा कण्ठ एका क्षण के लिये भी अवरुद्ध न हो। “हो सिद्ध-सिद्ध मुख में जब प्राण तन से निकले"। बस यही भावना है।
तवपादौ मम हृदये, मम हृदयं तव पदद्वये लीनम् । तिष्ठतु जिनेन्द्र ! तावद्यावनिर्वाण संप्राप्तिः ।।७।।
अन्वयार्थ ( जिनेन्द्र ! ) हे जिनेन्द्र ( यावत् ) जबतक (निर्वाणसम्प्राप्ति: ) निर्वाण की प्राप्ति हो ( तावत् ) तबतक ( तव पादौ ) आपके दोनों चरण-कमल ( मम हृदये ) मेरे हृदय में व ( मम हृदयं ) मेस हृदय ( तव-पद-द्वये ) आपके दोनों चरण-कमलों में ( लीनम् ) लीन हो (तिष्ठतु ) स्थित रहें।
भावार्थ---हे देवाधिदेव जिनेन्द्र ! मुझे जबतक निर्वाणपद की प्राप्ति हो तबतक आपके दोनों चरण-कमल मेरे हृदय स्थित हों तथा मेरा हृदय भी आपके चरण-कमलों में समर्पित रहे । मेरा हृदय आपके चरणों में ही स्थित रहे । अर्थात् मुक्ति की प्राप्ति पर्यन्त मैं आपका ही ध्यान करता रहूँ, बस यही प्रार्थना है।
एकापि समर्थेयं, जिनभक्ति-दुर्गतिं निवारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितुं, दातुं मुक्तिश्रियं कृतिनः ।।८।।
अन्वयार्थ-( कृतिन: ) कर्तव्यपरायण, जिनभक्त की ( इयम् ) यह ( एक अपि जिनभक्तिः ) एकमात्र, एक ही जिनभक्ति ( दुर्गति निवारयितुम् ) नरकादि दुर्गतियों का निवारण करने के लिये ( पुण्यानि पूरयितुं ) पुण्यों को पूर्ण करने के लिये ( च ) और ( मुक्ति श्रियं दातु ) मुक्ति लक्ष्मी को देने के लिये ( समर्था ) समर्थ है, पर्याप्त है।