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________________ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका भावार्थ - हे वीतराग जिनदेव ! मेरी एकमात्र यही प्रार्थना हैं कि जब तक मुक्ति की प्राप्ति हो तब तक मेरा भव भव में ऐसे समागम में समाधिपूर्वक मरण हो जहाँ वीतरागी दिगम्बर साधुओं का समूह विराजमान हो, गुरु का पादभूत हो मेरे सामने हो तथा जिनेन्द्रकथित जैन सिद्धान्तरूपी समुद्र का जयघोष हो रहा हो । जन्मजन्मकृतं पापं, जन्मकोटि समार्जितम्, जन्ममृत्युजरामूलं, हन्यते जिनवंदनात् ।। ५ ।। ३७६ अन्वयार्थ --- ( जिन-वन्दनात् ) जिनेन्द्रदेव की वन्दना करने से ( जन्म कोटि समार्जितम् ) करोड़ों जन्मों में संचित किया गया तथा (जन्म-मृत्युजरामूलं ) जन्म - मृत्यु और वृद्धावस्था का मूल कारण ऐसा (जन्म-जन्मकृतं पापं } अनेक जन्मों में किया हुआ पाप ( हन्यते ) नष्ट हो जाता है । भावार्थ - हे प्रभो! आपके वन्दन, दर्शन की महिमा अपार हैं। आपके चरण कमलों की वन्दना करने से भव्यजीवों के अनेकों जन्मों से संचित पाप, जो जन्म-जरा- मृत्युरूपी तापत्रय के मूल हेतु हैं; एक क्षण मात्र में क्षय को प्राप्त हो जाते हैं। आपल्याज्जिनदेवदेव ! भवतः, श्री पादयोः सेवया, सेवासक्तविनेयकल्पलतया, कालोऽद्ययावद्गतः । त्वां तस्याः फलमर्थये तदधुना, प्राणप्रयाणक्षणे, त्वनामप्रतिबद्धवर्णपठने, कण्ठोऽस्त्वकुण्ठो मम ।। ६ ।। अन्वयार्थ - ( देव, देव जिन ! ) हे देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान् ! ( मम ) मेरा ( आबाल्यात् ) बाल्य अवस्था से लेकर ( अद्य यावत्काल ) आज तक का काल ( सेवा- आसक्त विनेय- कल्पलतया ) सेवा में समर्पित भक्तजनों के लिये कल्पबेल समान ( भवतः ) आपके ( श्रीपदयोः ) श्री चरणों की (सेवया ) सेवा आराधना पूर्वक ( गतः ) बीता है ( अधुना ) इस समय ( त्वां ) आप श्री से ( तस्याः फलं अर्थये ) उस सेवा आराधना के फल की याचना करता हूँ । ( तद् ) वह यह कि ( प्राण प्रयाण-क्षणे ) प्राणों के विसर्जन काल - मृत्यु समय में ( मम कण्ठ ) मेरा कण्ठ ( त्वन्नामप्रतिबद्ध-वर्ण-पठने ) आपके नाम से सम्बद्ध वर्णों के पढ़ने में ( अकुण्ठ अस्तु ) अवरुद्ध न हो— सामर्थ्यवान बना रहे । ·
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
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