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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका होने से जिनोत्तम हैं। ४थे गुणस्थान से १३ गुणस्थान तक सब जीव जिन संज्ञा के धारक कहे गये हैं अत: उनमें आप श्रेष्ठ हैं, अथवा १३वें गुणस्थान सामान्य जिन अनेक हैं उनमें तीर्थंकर, चक्रवर्ती, कामदेव तीन पदों के धारक होने से भी आप जिनोत्तम हैं ] । कमल के पुष्प सम विकसित, सुन्दर विशाल जिनके नेत्र हैं, ऐसे शान्तिनाथ भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ। पञ्चम-मीप्सित-चक्रधराणां, पूजित-मिन्द्र-नरेन्द्र-गणैश्च । शान्तिकरंगण-शान्ति-मभीप्सुः, षोडश तीर्थकर-प्रणमामि ।।१०।।
अन्वयार्थ ( पञ्चमम्-इप्सित-चक्रधराणा ) जो आभलाषत बारह चक्रवर्तियों में पञ्चम चक्रवर्ती थे ( इन्द्र-नरेन्द्र-गणैः च ) जो इन्द्र और नरेन्द्रों के समूहों से ( पूजितम् ) पूजित हैं ( शान्तिकरं ) जो शान्ति को करने वाले हैं ( गणशान्तिं अभीप्सुः ) महाशान्ति का इच्छुक ( षोडशतीर्थकर-प्रणमामि ) मैं उन शान्तिनाथ भगवान को नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ—जो गृहस्थावस्था में इस अवसर्पिणी काल के १२ चक्रवर्तियों में पश्चम चक्रवर्ती थे। दीक्षित हो संयमी बनकर वे इन नरेन्द्रों के परिवारों, समूहों से पूजा का प्राप्त हुए जो प्राणीमात्र में शान्ति को करने वाले हैं, उन शान्तिनाथ भगवान को मैं पूर्ण शान्ति, महाशान्ति का इच्छुक नमस्कार करता हूँ। दिव्यतरुः सुर-पुष्प-सुवृष्टि- र्दुन्दुभिरासन-योजन घोषौ । आतप-वारण-चामर-युग्मे, यस्य विभाति च मण्डलतेजः ।।११।।
अन्वयार्थ—( यस्य ) जिन शान्तिनाथ भगवान के ( दिव्यतरुः ) अशोक वृक्ष ( सुरपुष्पसुवृष्टिः ) देवों द्वारा उत्तम सुगन्धित पुष्पों की वर्षा, ( दुन्दुभिः ) दुन्दुभिनाद ( आसन-योजन घोषौ ) सिंहासन तथा एक योजन तक सुनाई देने वाली दिव्यध्वनि ( आतपवारण-चामर युग्मे ) छत्रत्रय, दोनों ओर चैवर दुरना ( च ) और ( मण्डलतेजः ) भामण्डल का तेज ये आठ प्रातिहार्य ( विभाति ) सुशोभित हैं।
भावार्थ-जो तीर्थकर शान्तिनाथ भगवान समवशरण सभा में अशोक वृक्ष, देवों द्वारा उत्तम सुगन्धित फूलों की वर्षा, दुन्दुभि बाजों का बजना,