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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
शीतकाल में वे मुनिराज क्या करते हैं ? दुबई छन्द
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अविरतबहल तुहिनकण, वारिभिरंध्रिपपत्र पातनैरनवरतमुक्तसात्काररवैः परुषैरथानिलैः शोषितगात्रयष्टयः । धृतिकंबलावृताः शिशिरनिशां गमयन्ति, चतुः पथे
इह श्रमणा विषमां
तुषारं
स्थिताः ।।७।। अन्वयार्थ - ( अविरत - बहल - तुहिन - कण - वारिभिः ) निरन्तर अत्यधिक हिमकण मिश्रित जल से सहित है अर्थात् जिस काल में ओलों की जलवृष्टि हो रही है ( अघि पपत्रपातनैः ) जिनसे वृक्षों के पत्ते गिर रहे हैं और ( अनवरत-मुक्त-सात्काररवै: ) उससे निरन्तर "सायँ - सायँ" ऐसा बड़ाभारी शब्द होता रहता है ( अथ ) तथा ( परुषैः अनिलैः ) कठोर वायु के द्वारा ( शोषित - गात्र- यष्टयः ) सूख गयी है शरीर यष्टि ( दुर्बल शरीर ) जिनका ऐसे ( श्रमणा: ) निर्मन्थ महासाधु ( इह ) इस लोक में ( धृति - कम्बलावृता: ) धैर्यरूपी कम्बल से ढके हुए ( तुषार-विषमां ) हिमपात से विषम (शिशिरनिशां ) शीतकाल की रात्रि को ( चतुः पथे ) चौराहे में ( स्थिताः ) स्थित हो ( गमयन्ति ) व्यतीत करते हैं ।
भावार्थ - शीतकाल में जो वायु चलती है, वह सदा बरफ, ओलों की बड़ी-बड़ी बूँदों से भरी रहती है, शीतकाल की वायु वृक्षों के सब पत्ते गिरा देती है, उससे सदा "सायं-सायं" ऐसे बड़े भारी शब्द होते हैं, वायु अत्यन्त कठोर चलती है। झंझा वायु से जिनकी शरीररूपी लकड़ी सूख गई है, ऐसे वे मुनिराज चौराहे पर चौड़े मैदान में विराजमान होकर और सन्तोषरूपी कम्बल को धारण कर बड़े सुख से शीतकाल की रात्रि को व्यतीत कर देते हैं ।
स्तुति फल की याचना
भद्रिका
इति योगत्रयधारिणः सकलतपशालिनः प्रवृद्धपुण्यकायाः । परमानन्दसुखैषिणः, समाधिमद्र्यं दिशंतु नो भदन्ताः ||८||
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अन्वयार्थ - ( इति ) इस प्रकार ( योगत्रय - धारिणः ) आतापन - वृक्षमूलअवकाश योगों को धारण करने वाले ( सकल तपः शालिनः ) समस्त