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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
२७७ रूप से जिनेन्द्र कथित अपरिमित श्रुतज्ञान जिनवाणी को, जो मिथ्यात्व में डूबे, अज्ञान अन्धकार से घिरे जीवों के लिये एक अनुपम, अद्वितीय ज्योतिरूप प्रकाशपुंजिका है, प्रतिवादियों के द्वारा अपराजित है ऐसी माँ जिनवाणी के लिये मैं सदा नमस्कार करता हूँ।
जिन प्रतिमाओं को नमस्कार भवन-विमान-ज्योति- यन्तर-नरलोक विश्व-चैत्यानि । त्रिजग-दभिवन्दितानां त्रेधा बन्दे जिनेन्द्राणाम् ।।८।।
अन्वयार्थ ( निजामता अभिवन्दितानां । तीनों लोगों के जीनों के द्वारा अभिवन्दनीय ( जिनेन्द्राणाम् ) अरहंत/जिनेन्द्रदेव की ( भवन-विमानज्योति:-व्यन्तर, नरलोक, विश्व चैत्यानि ) भवनवासी, वैमानिक, ज्योतिषी, व्यन्तर देवों के विमानों में, समस्त निवास स्थानों में विराजमान तथा ढाई दीप/मनुष्यलोक में, सर्व लोक में विराजमान समस्त जिनबिम्बों की मैं ( वेधा वन्दे ) मन-वचन-काय से वन्दना करता हूँ।
भावार्थ-अधोलोक, मध्यलोक, ऊर्ध्वलोक सर्व विश्व में विराजमान कृत्रिमाकृत्रिम जिनेन्द्रदेव की वीतराग प्रतिमाएँ जो समस्त जीवों के द्वारा अभिवन्दनीय हैं उनको मैं मन-वचन-काय से सदा वन्दना करता हूँ।
चैत्यालय की स्तुति मुखनत्रयेऽपि भुवनत्रयाधिपाभ्यज़-तीर्थ-कव॒णाम् । वन्दे भावाग्नि-शान्त्यै विभवाना-मालयालीस्ताः ।।९।।
अन्वयार्थ (विभवानाम् ) संसार रहित ( भुवनत्रय-अधिप-अभ्यर्च्य ) तीन लोकों के पतियों के द्वारा पूज्य ( तीर्थकर्तृणाम् ) तीर्थंकरों के ( भुवनत्रयेऽपि ) तीनों लोकों में ( आलय-अली ) जो मन्दिरों की पक्तियाँ हैं ( ता: ) उनको ( भव-अग्नि-शान्त्यै ) संसाररूपी अग्नि को शान्त करने के लिये ( वन्दे ) मैं नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ-जो जन्म-मरा-मरणरूप संसार से रहित हैं, इन्द्र, नरेन्द्र, धरणेन्द्र आदि तीन लोक के अधिपतियों से वन्दनीय है। पूज्य हैं, ऐसे तीर्थंकर परमदेव. के जिनालयों की पक्तियाँ जहाँ-जहाँ भी शोभायमान हैं. उनका मैं संसाररूपी आग्न को शान्त करने के लिये नमस्कार करता है।